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प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चाम्रचारु - कलिका निकरैक हेतुः ।। "
ऐसी ही स्थिति मेरी भी बनी है । गुरुदेव गजेन्द्र का स्मरण मुझे अपनी भावाव्यक्ति के लिए विवश कर रहा है
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आचार्य भगवन् !
सत्य धर्म के प्रतिबोधक थे,
सामायिक स्वाध्याय के उद्बोधक थे,
अज्ञान अंधकार के निरोधक थे, शिथिलता के अवरोधक थे, वीतरागता के सजग उपासक थे, गूढ़ रहस्यों के वे उद्घाटक थे ।
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ऐसे गुरुदेव ने पीपाड़ में जन्म लेकर वीर वाणी को पीना, आत्मस्वरूप को पाना और पाप से डरना सीखा था । पूज्य गुरुदेव "अप्प दीवो भव" की प्रेरणा के प्रत्यक्ष प्रतीक थे । आपश्री का सम्पूर्ण जीवन धर्म-संस्कृति को समर्पित रहा । वर्तमान युग के श्राप एक अलौलिक यशोमहिमा को धारण किये हुए थे । वह महिमा त्रिविध थी । यह त्रिविध महिमा अन्तर एवं बाहरी जगत् को आलोकित करने वाली थी ।
अन्तर जगत् की त्रिविध महिमा थी
१. सोत्साह ज्ञानाराधन - जब देखो तब पठन-पाठन में नित नूतन अन्वेषण - अनुसन्धान में तल्लीन ।
२. निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रविचल श्रद्धान- यही कारण था कि भयंकर से भयंकर व्याधि के प्रसंगों में भी एक ही स्वर मुखरित होता था - ' विनाशधर्मा है । "
- " यह शरीर तो
३. श्रागमोक्त श्राचार मार्ग में दृढ़ता- दृढ़ श्राचारवन्त थे गुरुदेव । पदप्रतिष्ठा के प्रलोभनों को उन्होंने ठुकरा दिया । उनकी एक ही निष्ठा थी कि संयमी गरिमा को खोकर कुछ भी पाना आत्म-वंचना है ।
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इस अन्तर जगत् की महिमा के कारण ही इस महापुरुष का देह धारण करना एवं देह - विसर्जन करना दोनों ही गरिमामय थे । भीतर साधना का जबरदस्त प्रोज था और अनुभूत मननशीलता थी । आपके मुख मण्डल पर
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