________________
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सर्वथा अनदेखा कर दिया, जो बाहर सुनायी दे रहा है, उसे सर्वथा अनसुना कर दिया, मात्र एकत्व भावना का चिन्तन, एकीभाव में तल्लीन, स्वयं को सुनना, स्वयं को देखना, स्वयं को जानना........ .... प्रन्तर्मुखी अवस्था.......परभाव से सर्वथा मुक्त - भारमुक्त अवस्था.... . "अप्पा अप्पम्मि रम्रो" की परम दशास्व की स्व के लिये जीने की परम समाधिवन्त साधना आत्मोपासना. .. वीतराग
आराधना
५०
'मैं आत्मा हूँ' इस अन्तर्मुखी स्वर को बुलंद करके ज्ञानावरणीय कर्म को शिथिल किया ।
मैं अविनाशी हूँ....... अपने निज स्वरूप को देखा, स्वभाव से विभाव दशा को देखा - दर्शनावरणीय कर्म को शिथिल किया ।
रोग का आतंक यह वेदना........यह वेदना शरीरजन्य है, मैं शरीर नहीं हूँ, देहभाव से मुक्त होते हुए वेदनीय कर्म को शिथिल कर दिया ।
ज्ञान, दर्शन और चारित्र मेरा है, जो मेरा है वह जा नहीं सकता । शरीर जा रहा है - जाने दो, यह शरीर मेरा नहीं है और मैं उसका नहीं हूँ । जन्मना मरना, बनना - बिगड़ना, सृजन और विध्वंस यह अनादिकालीन खेल पुद्गलों का है.. .. मोहकर्म को शिथिल किया ।
प्रतिक्षण भावमरण चल ही रहा है । शरीर प्रतिसमय जरा को उपलब्ध हो रहा है । वह मिटेगा ही, इसलिये यह आयु की सीमा से आबद्ध है । इस जड़ शरीर को टिकाये रखने की और उसे मिटाने की अर्थात् जीने की, मरने की आकांक्षा व्यर्थ है ....... आयु कर्म को शिथिल किया ।
यह शरीर संघयण संठाण, यह सब नहीं हूँ, मैं रस-गंध-स्पर्श नहीं हूँ । ये बाधक हैं । इस चिन्तन से नाम कर्म को शिथिल किया ।
कर्मजन्य है । मैं शब्द नहीं हूँ, मैं रूप शब्दादि संयोग मेरी कर्म - मुक्ति में
यह जीवात्मा अनेक बार उच्चगोत्र में जन्म ले चुकी है और अनेक बार नीच गोत्र में । मेरा अस्तित्व ऊँच-नीच के भेद से परे अभेद है । इस चिन्तन से गोत्र कर्म शिथिल किया ।
मैं अनन्त बल सम्पन्न हूँ । सब जीवों से मैं खमाता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें । मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ । इस प्रकार सभी जीवों के प्रति अभयदान की भावना से अन्तराय कर्म को क्षीण किया ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org