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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • ४६ संसार से उठ गया हो और आज हमारे मध्य न हो, फिर भी उनकी अमर स्मृतियाँ और अमूल्य कृतियाँ जीवन्त हैं अर्थात् सामायिक-स्वाध्याय की दिव्य प्रेरणायें भव्यों के आचरण में प्राणवान हैं। पूज्य श्री का ज्ञान प्रकाशित कीर्तिदीप 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' के रूप में अद्वितीय स्मृति-चिह्न है । इस स्मृति-चिह्न में उनके प्रज्ञा की प्रखरता प्रतिबिम्बित होती है। .. अहो ! कितनी भव्य थी महामनीषी आचार्य भगवन की प्रतिभा। उस भगवत्ता को जानना-समझना किसी भी संकीर्ण घेरे में कतई सम्भव नहीं । सभी संकीर्ण क्षुद्र घेरों से मुक्त होकर ही मुक्तिगामी की श्रेष्ठता को हृदय-पटल पर अंकित किया जा सकता है। हम भी अपनी भाव-भाषा से उस भगवत्ता को जानने का प्रयास करें। विनाशी और अविनाशी का संयोग........फिर भी दोनों अलग........दोनों की संवेदना........दोनों की अनुभूति अलग । पोषण करते थे विनाशी का अविनाशी की चर्चा के लिये—अविनाशी की अर्चा के लिये.......रक्षा करते थे विनाशी (शरीर) की, विनाशी (कर्मजन्य पुद्गलों) से मुक्त होने के लिये.......लेते थे सहारा विनाशी का अविनाशी को पूर्णता ........स्वभाव की पूर्णता.......चैतन्य की अखण्डता पाने के लिये........अविनाशी के साथ विनाशी का संयोग, प्रयोग की साधना के लिये। कितने सावधान........सावचेत........जागरूक, विनाशी ने बगावत करना प्रारम्भ किया........रोग का आतंक है, नाव कमजोर हो रही है........नाविक तृतीय मनोरथ साकार करने को लालायित है। उधर एक श्रावक को वचन दिया हुआ है—अन्तरमन तृतीय मनोरथ की प्रतिज्ञा को साकार करने को तथा श्रावक को दिये हुए वचन को साकार करने को कटिबद्ध है किन्तु........विनाशी की बगावत........कोई परवाह नहीं........जो साथ छोड़ना चाहता है उससे कौनसा रिश्ता........जिस मकान की नियति गिरना है उसमें कौनसी ममता ? बस जो है उसमें से अमूल्य की रक्षा करना, असार में से सार निकालना, समीम से परे असीम का पोषण करना ही प्रतिबद्धता है। ___ जो ध्र व है-जो अचल है-जो अडोल है-जो अकम्प है ऐसे चैतन्य देव को जागति के परम शिखर पर प्रतिष्ठित किया। जड़ और चैतन्य के परम विज्ञाता गुरु हस्ती ने संयमी मस्ती दिखला दी और निमाज की बस्ती धन्य-धन्य हो उठी । असार में जो सार रूप बचा था उसे तपाग्नि में झोंक दिया। असार में से सार निकालने के लिये प्रारम्भ कर दी अष्टम भक्त की आराधना। प्रात्मशूद्धि की प्रक्रिया के साथ संलेखना संथारा....... जो बाहर दिखायी दे रहा है, उसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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