SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • ४८ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व हुआ । राग-द्वेष से मुक्त हो वीतरागी बनने के लिये बालक लालायित हो उठायाने रागी से विरागी और विरागी से वीतरागी........। ___ आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी की मुनिमण्डली में यह बालक मुनि अपनी श्रीशोभा बिखेर रहा था किन्तु प्राचार्य श्री इन्हें श्रमणरत्न बनाकर रत्मवंश की, श्रीसंघ की शोभा बढ़ाना चाहते थे-तदनुरूप इनका निर्माण प्रारम्भ हुआ। इन छोटे मुनि ने ज्ञानाराधना में अपनी प्रखर मेधावी शक्ति का कमाल दिखाकर पूज्य गुरुदेव की भावनाओं को सार्थक किया। हस्ती मुनि की संयम में सजगता, प्रवचन में प्रखरता, तप-आराधना में तत्परता, ज्ञानाराधना में तन्मयता से साधना में जो निखार उत्पन्न हुआ, उससे संघ धन्य-धन्य हो उठा। सन् १९३० में आगमज्ञाता, पाशुप्रज्ञ मुनि प्रवर को रत्नवंश-अधिनायक बनाया गया। इस गुरुतर दायित्व को लघुवय वाला मुनि अपने कंधे पर लेवे, यह विगत लम्बे इतिहास में प्रथम घटना थी। यह दायित्व देकर आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी महाराज ने अपने शिष्य की योग्यता का, प्रतिभा का और क्षमता का परिचय दिया । नूतन आचार्य, जिन्होंने बाल्यावस्था में संयम अंगीकार करके मातृपक्ष और पितृपक्ष दोनों को गौरवान्वित किया तथा कुशल वंश का, अपने उपकारी पूज्यवर का गौरव बढ़ाया उत्तम आचरण से। पूज्य श्री पंचम आरे में जैन धर्म के शृंगार थे। उनका व्यक्तित्व वैराग्य के उत्तुंग शिखर पर प्रतिष्ठित था। उन्होंने जैन संस्कृति को एवं आत्म-ज्योति को महिमा-मण्डित बनाये रखने के लिये सावधान-सावचेत हो यावत् जीवन उत्कृष्ट चारित्र का पालन किया। पूज्य श्री धर्म के लिये जिये और धर्म के लिये ही मिटे अर्थात् उनका जीवन-मरण दोनों ही धर्ममय थे। पूज्य श्री ने बाल्यावस्था से ही अन्तर्मुखी बनकर दर्शन-विशुद्धि को बढ़ाया । आगम-अनुप्रेक्षा करके ज्ञान-बल को बढ़ाया। जैसा भीतर में जाना, जैसा आगम-ज्ञान से समझा, उसे जीवन में उतार कर चारित्र-बल को बढ़ाया। फलतः उनके अन्तस्तल में ज्ञान-दर्शन-चारित्र का सागर लहराने लगा और उसी अनन्त सागर में कायोत्सर्ग रूपी तपोबल के साथ पूज्य श्री ने अपने आपको विलीन किया । धन्य है ऐसे महाबली श्री मज्जैनाचार्य को। पूज्य श्री हस्ती एक ऐसी बेजोड़ प्रतिभा थे कि आज उनकी प्रतिभा हमारे सामने प्रत्यक्ष नहीं है, फिर भी उस प्रतिभा के प्रति पूर्ववत् प्रणति भाव का आज भी जनजीवन में साक्षात्कार होता है। पूज्य श्री का मरणधर्मा देहपिण्ड भले ही Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy