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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
होता है। दूसरा वह है, जो उसके तत्त्व को समझ कर करता है, तीसरा वह होता है, जो समझता है और दूसरों को भी प्रेरित करता है । सेवा या त्याग वही सार्थक है, जो समझपूर्वक है, जिसका अर्थ स्वयं के अलावा दूसरे भी समझ सकें। आशय यह नहीं कि उसका ढिंढोरा पीटा जाए या प्रसिद्धि प्राप्त की जाए-प्रसिद्धि या निज स्वार्थ की कामना छोड़कर विशुद्ध परोपकारी भाव से सेवा और त्याग किया जाए, तभी उसकी सार्थकता है ।
पूज्य महाराज साहब पीपाड़ की एक 'हस्ती' के रूप में प्रसिद्ध हुए, हर कोई उनकी सेवा, साधना, ज्ञान व मार्गदर्शन की प्रशंसा करता था। मेरी निजी मुश्किली रही कि मैं समझ पकड़ने के साथ ही पीपाड़ छोड़कर बम्बई में बस गया, अतः आचार्य श्री के दर्शनों का लाभ चाहते हुए भी नहीं ले पाया। मुझे जैन परम्परा का भी बहुत आभास नहीं था, इसलिए एक-दो बार पत्र लिखे तो उनकी तरफ से किसी श्रावक महोदय ने ही जवाब दिया। मुझे जो मार्गदर्शन चाहिए था वह उन्होंने एक सन्देश के साथ लिख दिया और पत्र की समाप्ति में एक वाक्य "प्राचार्य श्री ने निरन्तर 'स्वाध्याय' करने का सन्देश दिया है।"
__ मैं तब उनके इस स्वाध्याय सन्देश को समझ नहीं पाया, मगर इस तपस्वी संत की इतनी कीर्ति है तो उनके दर्शन जरूर करने चाहिए, मगर हरदफा कोई न कोई निजी दुविधा बाधक बन जाती थी। उनके चातुर्मास ही निश्चित मुकाम पर होते थे बाकी समग्र विहार पर रहते और वहाँ पहुँचना सम्भव नहीं बन पाया-इसलिए उनके प्रति निरन्तर मन का आकर्षण बढ़ता ही गया।
कहीं भी साधु महात्मा से मिलने का सौभाग्य मिलता तो उसे लेने का कोशिशपूर्वक प्रयत्न करता, कभी-कभी धर्मचर्चा या किसी दैनिक जीवन संबंधित, समाज संबंधित प्रश्न पर भी चर्चा करता, उनसे मतमतांतर भी बनता, लेकिन उनके प्रति श्रद्धाभाव में कभी कोई कमी नहीं आती। जैन साधु संतों के बारे में आज भी मेरी यह धारणा है कि दूसरे साधुओं की तुलना में उनका जीवन व अनुशासन अधिक कड़ा और त्यागमय है। दूसरे सम्प्रदायों के साधु महात्माओं के लिए अधिक सुख-सुविधाएँ व वैभव आदि को निज आँखों से देख चुका हूँ-उनकी तुलना में मुझे जैन साधुओं का जीवन अधिक त्यागमय लगा है। हालांकि देखने वाले तो उनमें भी शिथिलता देखने लगे हैं, परन्तु जिस समाज व दुनिया में जहाँ इतनी भौतिक सुख-सुविधा का बोलबाला हो चुका है, वहाँ इन जैन साधु समाज के लिए जो भी नियम-बंधन अनुशासन के रूप में लागू हैं वे निश्चित ही उनके त्याग के प्रतीक हैं। दूसरी बात जहाँ इतना बड़ा समूह है, इतनी बड़ी संख्या साधुसंतों की है, उसमें इस भौतिकता से प्रभावित कुछ कमजोर मन के लोग भी निकल सकते हैं । मैं उसे गौण ही मानता हूँ, हालांकि उन पर भी अनुशासन
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