________________
• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
.३३
का अंकुश जरूर रहना चाहिए। तो उनके त्याग-तपस्या की जहां प्रशंसा करता हैं, वहाँ मेरी खोजी आँखें उनके मार्गदर्शन पर भी लगी रहती हैं। मैंने पाया कि अधिकांश विद्वान् संत केवल लीक पर चलने वाले होते हैं, वे उस बंधी हुई परम्परा से बाहर निकलने का प्रयास नहीं कर पाते या फिर उनमें साहस या वैसा चिन्तन नहीं होता होगा। दूसरी बात जो मैंने माकं की वह यह भी है कि उन साधु महात्माओं का जीवन त्यागमय तपस्यापूर्ण जरूर है, परन्तु उनके इर्दगिर्द वैभवी लोगों का प्रभावी जमघट भी देखा-उनकी प्रवत्तियों में, उनके चातुर्मास में वैभव का प्रभाव भी देखा, धन का बोलबाला देखा। जिसका परिणाम समाज के आयोजनों में, धार्मिक आयोजनों में, श्रावकों की तपश्चर्या में, सभी जगह “धन” को एक प्रचलित रिवाज के रूप में देखा जा सकता हैइस तरह धन के प्रभाव को धर्म में, समाज में आम स्वीकृति मिल चुकी है। दूसरे शब्दों में कहीं-कहीं धन का प्रभुत्व धर्म से भी अधिक या धर्म पर धन का प्रभुत्व छा गया है, ऐसा कहने में भी मुझे कोई दोष नहीं दे सकता। मैंने यह भी देखा है कि समाज में धन का प्रभुत्व इस हद तक बढ़ा है जिसके कारण जो गैरजरूरी लेनदेन, गलत रिवाज आदि खुशी के मौकों पर खासकर विवाहसगाई के अवसर पर काफी बढ़ गया है, उसका भी औचित्य है या नहीं, यह एक अलग प्रश्न है। परन्तु उससे भी आगे धर्म-साधना, व्रत-उपवास जो धर्म की भावना से आत्मशुद्धि के लिए किये जाते हैं, उन तपश्चर्या के कार्यक्रमों में भी वही लेनदेन के रिवाज आम बनते जा रहे हैं। प्रायोजन चाहे दीक्षा का हो, चातुर्मास का हो, या वास-उपवास का हो सभी जगह 'धन' का यह प्रभुत्व, धन का यह चलन उद्देश्यों का भटकाव सा लगने लगता है। उस पर मैंने कभी किसी को आवाज उठाते नहीं देखा ।
प्रथम बार जब आचार्य प्रवर पूज्य हस्तीमल जी महाराज साहब के दर्शनों का सौभाग्य मिला तो वहाँ उनके प्रवचनों में मार्गदर्शन में इस बात का स्पष्ट निर्देश मिला
वास-उपवास, धर्म, साधना आदि आत्मशुद्धि के लिए हैं, लौकिक रिवाज नहीं, इनमें इस तरह का वैभवी प्रदर्शन हगिज नहीं होना चाहिए। लोग उन्हें तपश्चर्या के रूप में ही करें और यह देखें कि इन रिवाजों से किसी को कष्ट नहीं पहुँचे । धर्मसाधना जब रिवाज का रूप ले लेगी तो हर कोई साधना के पहले रिवाज को सोचेगा-इसे करने से मुझे कितना खर्च करना होगा, किस रिश्तेदार को क्या-क्या देना होगा-रिश्तेदार भी सोचने लगते हैं कि अमुक से अमुक रिश्ता है, उसे रिश्ते के अनुरूप 'व्यवहार' करना होगा और वह व्यवहार भी एक रिवाज बन जाता है । अतः तपश्चर्या, धर्म साधना आदि गौण हो जाती हैं, दुय्यम हो जाती है और 'रिवाज' प्रथम क्रम बन जाता है-दूसरी बात धर्म
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org