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युगाचार्य तपस्वी संत
- मधुश्री काबरा
पूज्य हस्तीमल जी महाराज साहब की इहलोक लीला समाप्त हो गई और वे मोक्षधाम सिधार गये-एक तपस्वी संत का सान्निध्य ही नहीं एक युग समाप्त हो गया । यहाँ युग एक व्यक्ति के कार्यकाल से देखा जाएगा। एक तपस्वी संत की तरह उनका पदार्पण हया और अपने जीवनकाल में समाज को, धर्म को इतना कुछ दे दिया कि उसकी तुलना किसी एक लेख या पुस्तक से संभव नहीं हो पाती। ग्रन्थ के ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। दूसरी बात धर्म की परम्परागत सेवा करना, रूढ़िग्रस्त स्थितियों में बंधे रहकर उसी दायरे को सीमा मानकर चलते रहना, यह भी एक सेवा है, परन्तु जो उसमें नया परिवर्तन लाए, नई दिशा दे-समय के बहाव की परवाह न करते हुए धर्म की सही परिभाषा की बात कहे, जिसके लिए प्रियता-अप्रियता का कोई महत्त्व नहीं होता, उनके लिए तो केवल एक ही बात, एक ही कर्तव्य-वह है सिद्धांतों का प्रतिपादन, सिद्धांतों के प्रति निष्ठा, उसी को कर्तव्य मानकर चलते रहना-भले ही समय लगे, लोकप्रियता, लोकचाहना की पराकाष्ठा या चरमसीमा की परवाह न करे, केवल ठोस निष्ठावंत लोगों के अल्प समुदाय को महत्त्व देकर अपने मिशन को आगे बढ़ाते जाना-"युग" को नया बोध देना, नई दिशा देना-यही युगपुरुष की पहचान है । युग बदलने वाला व्यक्ति ही युगपुरुष कहलाता है-ऐसे व्यक्ति दुर्लभ होते हैं, बहुत पुण्यपारमी से ही उनका अबतरण होता है।
पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म तो होता ही रहेगा, एक वह जो केवल अपने लिए जीता है, दूसरा अपने परिवार की हद तक सोचता है, तीसरा समाज के लिए तो चौथा देश और दुनिया का हित सोचता है। ऐसे लोग ही पुरुषोत्तम कहलाते हैं, जो अपने अलावा समग्र मानव जाति का कल्याण करते हैं। आज के समय में देखते हैं कि लोग धर्म की पूजा-पाठ बड़ी तन्मयता से करते हैं और कोई वास-उपवास भी शक्ति के बाहर कर लेते हैं। धर्म की स्थूलता या बाह्याचार की क्रियाएँ उनके मानसिक सुख-समाधान के लिए जरूर स्तुत्य हैं, परन्तु उसका उद्देश्य क्या है ? धर्म और समाज को उससे क्या लाभ हुअा, यह बताने की क्षमता उनमें नहीं होती। इसलिए उनकी वह धर्म सेवा केवल एक अनुकरण
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