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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
साधना के उच्चतम सोपान आते रहे- गुणों और लेश्याओं का तेज स्वतः खुलता रहा और लोक जीवन को नैतिक मर्यादाओं से हमें निष्णारत करने की अनवरत अभीप्सा रही-वही तो सच्चा गुरु और प्राचार्य था ।
आज वे नहीं होकर भी हैं और रहेंगे । पर, पर बही प्रश्न पुनः पुनः मस्तिष्क में उभर रहा है, जिससे मैंने यह श्रद्धांजलि प्रारम्भ की थी। अब उसी से इसका समापन भी करूं । उस तीर्थ जल में निरन्तर अवगाहन करके भी क्या हम अपने कषाय और कालुष्य को एक लघु सीमा तक भी दूर कर पाए ? क्या हम उस महान् आचार्य के शिष्यत्व पर आज सही गर्व कर सकते हैं ? क्या हम सभी सौमित्र-रेख से तो नहीं बंधे हैं । हैं तो आज आवश्यक है हमारे लिए भी अन्तर्यात्रा । कबीर ने बहुत पहले ही कहा था-'कर का मनका छांडिके, मन का मनका फेर' यह मन का मनका ही तो मन को निर्बन्ध करेगा। वही संघ की शक्ति होगी-वही सच्ची श्रद्धांजलि भी। वही श्रावक धर्म की यथार्थता और अर्थवत्ता भी । 'तीर्थनां हृदयं तीर्थ शुचीनां हृदयं शुचि'-सार्थक है वेद व्यास की यह उक्ति । आकाशवाणी से प्रसारित महादेवी के गीत की अन्तिम पंक्ति दोहरा दूं । आचार्य देव के अनुग्रह से 'दिव से लाए फिर विश्व जाग चिर जीवन का वरदान छीन' और 'तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु । यह हो तभी उनका मरण पर्व हमारा भी पुण्य पर्व होगा, अन्यथा...........???
डॉ. नरेन्द्र भानावत सम्पादक, 'जिनवाणी' जयपुर।
प्रापका कल्याणमल लोढा
अमृत - करण • मरण-सुधार जीवन-सुधार है और जीवन-सुधार ही
मरण-सुधार है। • जब अजेय यम का आक्रमण होता है और शरीर को त्याग कर जाने की तैयारी होती है तब जवाहरात के पहाड़ भी आड़े नहीं आते । मौत को हीरामोतियों की घूस देकर, प्राणों की रक्षा नहीं की जा सकती।
-प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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