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________________ • ३३२ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व न कुछ खा लेने की प्रेरणा करते हैं और खिलाकर छोड़ते हैं। पर पशु अनशन के द्वारा ही अपने रोग का प्रतिकार कर लेते हैं। __ गर्भावस्था में मादा पशु न समागम करने देती है और न नर समागम करने की इच्छा ही करता है, पर मनुष्य इतना भी विवेक और सन्तोष नहीं रखता। मनुष्य का आज आहार सम्बन्धी अंकुश बिलकुल हट गया। वह घर में भी खाता है और घर से बाहर दुकानों और खोमचों पर जाकर भी दोने चाटता है। ये बाजारू चीजें प्रायः स्वास्थ्य का विनाश करने वाली, विकार विवर्द्धक और हिंसाजनित होने के कारण पापजनक भी होती हैं । दिनोंदिन इनका प्रचार बढ़ता जा रहा है और उसी अनुपात में व्याधियाँ भी बढ़ती जा रही हैं। अगर मनुष्य प्रकृति के नियमों का प्रामाणिकता के साथ अनुसरण करे और अपने स्वास्थ्य की चिन्ता रक्खे, तो उसे डॉक्टरों की शरण में जाने की आवश्यकता ही न हो। दुर्व्यसनों से बचें : अनेक प्रकार के दुर्व्यसनों ने आज मनुष्य को बुरी तरह घेर रक्खा है। कैंसर जैसा असाध्य रोग दुर्व्यसनों की बदौलत ही उत्पन्न होता है और वह प्रायः प्राण लेकर ही रहता है । अमेरिका आदि में जो शोध हुई है, उससे स्पप्ट है कि धुम्रपान इस रोग का कारण है। मगर यह जानकर भी लोग सिगरेट और बीड़ी पीना नहीं छोड़ते। उन्हें मर जाना मंजूर है, मगर दुर्व्यसन से बचना मंजूर नहीं । यह मनुष्य के विवेक का दिवाला नहीं तो क्या है ? क्या इसी बित्ते पर वह समस्त प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करता है ? प्राप्त विवेक-बुद्धि का इस प्रकार दुरुपयोग करना अपने विनाश को आमंत्रित करना नहीं तो क्या है ? लोंग, सोंठ आदि चीजें औषध कहलाती हैं । तुलसी के पत्ते भी औषध में सम्मिलित हैं । तुलसी का पौधा घर में लगाने का प्रधान उद्देश्य स्वास्थ्य लाभ ही है। पुराने जमाने में इन चीजों का ही दवा के रूप में प्रायः इस्तेमाल होता था । आज भी देहात में इन्हीं का उपयोग ज्यादा होता है । इन वस्तुओं को चूर्ण, गोली, रस आदि के रूप में तैयार कर लेना भेषज है। प्रश्न : दान की पात्रता-अपात्रता का : आनन्द ने साधु-साध्वी वर्ग को दान देने का जो संकल्प किया उसका तात्पर्य यह नहीं कि उसने अन्य समस्त लोगों की ओर से पीठ फेर ली। इसका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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