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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • ३३१ बाजौट (१०) पाट (११) औषध-सोंठ, लवंग, काली मिर्च आदि (१२) भैषज्य बनी-बनाई दवाई (१३) शय्या-मकान और (१४) संस्तारक-पराल आदि । रजोहरण पाँव पोंछने का वस्त्र है, जो धूल साफ करने के काम आता है जिससे संचित की विराधना न हो । शय्या मकान के अर्थ में रूढ़ हो गया है। इसका दूसरा अर्थ है-बिछाकर सोने का उपकरण पट्टा आदि । पैरों को समेट कर सोने के लिए करीब अढाई हाथ लम्बे बिछौने को 'संथारा-संस्तारक' कहते हैं । प्रमाद की वृद्धि न हो, यह सोचकर साधक सिमट कर सोता है। इससे नींद भी जल्दी खुल जाती है । आवश्यकता से अधिक निद्रा होगी तो साधना में बाधा आयेगी, विकृति उत्पन्न होगी और स्वाध्याय-ध्यान में विघ्न होगा । ब्रह्मचारी गद्दा बिछा कर न सोये, यह नियम है । ऐसा न करने से प्रमाद तथा विकार बढ़ेगा। साधु-सन्तों को औषध-भेषज का दान देने का भी बड़ा माहात्म्य है। औषध शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है—ोषं पोषं धत्ते, इति औषधम् ।' सोंठ, लवंग, पीपरामूल, हर्र आदि वस्तुएँ औषध कहलाती हैं । यूनानी चिकित्सा पद्धति में भी इसी प्रकार की वस्तुओं का उपयोग होता है। आहार-विहार में संयम प्रावश्यक : प्राचीन काल में, भारतवर्ष में आहार-विहार के विषय में पर्याप्त संयम से काम लिया जाता था। इस कारण उस समय औषधालय भी कम थे। कदाचित् कोई गड़बड़ी हो जाती थी तो बुद्धिमान मनुष्य अपने आहार-विहार में यथोचित् परिवर्तन करके स्वास्थ्य प्राप्त कर लेते थे। चिकित्सकों का सहारा क्वचित् कदाचित् ही लिया जाता था। करोड़ों पशु-पक्षी वनों में वास करते हैं। उनके बीच कोई वैद्य-डॉक्टर नहीं है। फिर भी वे मनुष्यों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ रहते हैं । इसका कारण यही है कि वे प्रकृति के नियमों की अवहेलना नहीं करते । मनुष्य अपनी बुद्धि के घमण्ड में आकर प्रकृति के कानूनों को भंग करता है और प्रकृति कुपित होकर उसे दंडित करती है। मांस-मदिरा आदि का सेवन करना प्रकृति विरुद्ध है। मनुष्य के शरीर में वे प्रांतें नहीं होती, जो मांसादि को पचा सकें । मांस भक्षी पशुओं और मनुष्यों के नाखून दांत आदि की बनाबट में अन्तर है। फिर भी जिह्वालोलुप मनुष्य मांस भक्षण करके प्रकृति के कानून को भंग करते हैं । फलस्वरूप उन्हें दंड का भागी होना पड़ता है। पशु के शरीर में जब विकार उत्पन्न होता है, तो वह चारा खाना छोड़ देता है। यह रोग की प्राकृतिक चिकित्सा है। किन्तु मनुष्य से प्रायः यह भी नहीं बन पड़ता । बीमार कदाचित् खाना न चाहे तो उसके अज्ञानी पारिवारिक जन कुछ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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