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________________ पूर्ण पुरुषार्थी श्री टीकमचन्द हीरावत व्यक्ति एक है, दृश्य भी एक है पर दृष्टियाँ अनेक हैं । व्यक्ति जिस दृष्टि से देखता है उसके अनुसार उस पर प्रभाव पड़ता है । इन्द्रिय दृष्टि सबसे स्थूल दृष्टि है । इन्द्रिय-दृष्टि भोग की रुचि को सबल बनाती है, बुद्धि-दृष्टि भोगों से रुचि उत्पन्न कराती है और विवेक दृष्टि भोग वासनाओं का अन्त कर जड़चिद्-ग्रंथि को खोल देती है । जिसके खुलते ही अन्तर्दृष्टि उदय होती है जो अपने ही में अपने को पाकर कृतकृत्य हो जाती है अर्थात् 'पर' और 'स्व' का भेद गल जाता है । आज हम ऐसे ही व्यक्ति के व्यक्तित्व की चर्चा कर रहे हैं जो मानव से महामानव बन गया । आचार्य श्री ने बाल्यकाल में ही सुख की दासता एवं दुःख के भय के दोष को समझ लिया था । उसी कारण अल्प आयु में ही दीक्षा लेना, जीवन की क्षण ! भंगुरता को समझ लेना और जीवन के परम आनन्द को प्राप्त करना ही आपका लक्ष्य रहा और उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जीवन भर प्रयत्न करते रहे और उसे प्राप्त किया | आचार्य श्री ने कभी अपने को देह नहीं माना । देह न मानने पर कोई कामना ही उत्पन्न नहीं होती । कामना न होने पर सुख-दुःख का बन्धन टूट जाता है और चिरशान्ति स्वतः प्राप्त हो जाती है । शान्ति में जीवन बुद्धि न रहने पर शान्ति में भी रमण रुचिकर नहीं रहता, क्योंकि प्राणी की स्वाभाविक आवश्यकता जीवन की है । शान्ति से अरुचि होते ही शान्ति से प्रतीत के जीवन की लालसा हो जाती हैं जो उसका वास्तविक जीवन है । आपका जीवन ऐसी ही महान् साधना का जीवन था । आपका जीवन पूर्णतया पुरुषार्थमय था । कभी पुरुषार्थ में शिथिलता नहीं ग्राने दी, कारण जीवन में कोई अहं नहीं था । यह प्राकृतिक न्याय है कि पुरुषार्थ की पूर्णता में सफलता निहित है । आचार्य श्री ने योग, बोध और प्रेम में ही जीवन देखा । उसी का परिणाम है कि श्रम रहित होकर सत् का संग किया । सत् का संग अर्थात् श्रविनाशी का संग, जो है उसका संग | ग्राने अपने जीवन का सही मूल्याङ्कन किया । कभी भी अपने लक्ष्य के सम्बन्ध में उन्हें सन्देह नहीं रहा । उनके व्यक्तित्व में इतना निखार आ गया था कि वे मानव से महामानव बन गये । और जन कल्याण में अपना जीवन समाप्त कर दिया। ऐसे महामानव की गौरव गाथा को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता । इस प्रथम पुण्य तिथि पर उन्हें कोटि-कोटि वन्दन । - कार्याध्यक्ष, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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