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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
होता है।" गृहस्थ-दान, शील, सेबा, पूजा और उपकार आदि करते हुये भी यदि सामायिक द्वारा आत्म-संयम प्राप्त नहीं करता है, तो वह सावध से नहीं बच पाता । अतः कहा गया है कि
'सावज्ज-जोग-परिवज्जणडा, सामाइग्रं केवलियं पसत्थं । गिहत्थधम्मा परमंतिनच्चा, कुज्जा बुहो आयहियं परत्था ॥' ७६८
अर्थात् सावध योग से बचने के लिये सामायिक पूर्ण और प्रशस्त कार्य है इससे प्रात्मा पवित्र होती है । गृहस्थ धर्म से इसकी साधना ऊँची है-श्रेष्ठ है, ऐसा समझ कर बुद्धिमान, साधक को आत्महित और परार्थ-- परलोक सुधार के लिये सामायिक का साधन करना आवश्यक है।
जो भी गहस्थ तीन करण, तीन योग से सामायिक नहीं कर पाता, तब अात्महितार्थी गृहस्थ को दो करण, तीन योग से आगार सामायिक अवश्य करना चाहिये । क्योंकि वह भी विशिष्ट फल की साधक है। जैसा कि नियुक्ति में कहा है
'सामाइयम्मि उ कए, समणोइव सावओ हवइ जम्प्त ।
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥' ८०१ ।।
'सामायिक करने पर श्रावक श्रमण-साधु की तरह होता है, इसलिये गृहस्थ को समय-समय पर सामायिक का साधन करना चाहिये।'
सामायिक करने का दूसरा लाभ यह भी है कि गृहस्थ संसार के विविध प्रपंचों में विषय-कषाय और निद्रा विकथा आदि में निरन्तर पाप संचय करता रहता है । घड़ी भर उससे बचे और आत्म-शांति का अनुभव कर सके, क्योंकि सामायिक साधन से आत्मा मध्यस्थ होती है । कहा भी है
'जीवो पमाय बटुलो, बहुसोउविय बहु विहेसु अत्थेसु ।
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥' ८०२ ।।
जो लोग यह सोचते हैं कि मन शांत हो और राग-द्वेष मिटे, तभी सामायिक करना चाहिये । उसको सूत्रकार के वचनों पर गहराई से विचार करना चाहिये । आचार्य बार-बार करने का संकेत ही इसलिये करते हैं कि मनुष्य प्रमाद में निज गुण को भूले नहीं।
साधु की तरह होने के कारण व्रती गृहस्थ व्यवहार में सामायिक करता . हुमा मुकुट, कुण्डल और नाम मुद्रादि भी हटा देता है ।
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