SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • १८१ हैं । जहां श्रद्धा पूर्वक सदनुष्ठान का आसेवन भी होता हो उसे कारक । जो श्रद्धा मात्र रखता हो, क्रिया नहीं करता वह रोचक और सम्यग् श्रद्धाहीन होकर भी जो दूसरों में तत्व श्रद्धा उत्पन्न करता हो-मरीचि की तरह धर्मकथा आदि से अन्य को सम्यक् मार्ग की ओर प्रेरित करता हो, उसे दीपक सम्यक्त्व कहा है। सम्यक्त्व सामायिक में यथार्थ तत्वश्रद्धान होता है । श्रुत सामायिक में जड़ चेतन का परिज्ञान होता है । सूत्र, अर्थ और तदुभय रूप से श्रुत के तीन अथवा अक्षर-अनक्षरादि क्रम से अनेक भेद हैं। श्रुत से मन की विषमता गलती है, अतः श्रुताराधन को श्रुत सामायिक कहा है। चारित्र सामायिक के आगार और अनगार दो प्रकार किये हैं। गहस्थ के लिए मुहूर्त आदि प्रमाण से किया गया सावद्य-त्याग आगार सामायिक है। अनगार सामायिक में सम्पूर्ण सावद्य त्याग रूप पांच चारित्र जीवन भर के लिये होते हैं । आगार सामायिक में दो कारण तीन योग से हिंसादि पापों का नियत काल के लिये त्याग होता है, जब कि मुनि जीवन में हिंसादि पापों का तीन करण, तीन योग ने आजीवन त्याग होता है। श्रावक अल्प काल के लिये पापों का त्याग करके भी श्रमण जीवन के लिये लालायित रहता है, वह निरन्तर यही भावना रखता है कि कब मैं प्रारम्भ-परिग्रह और विषय-कषाय का त्याग कर श्रमण-धर्म की पालना करूँ ! व्यावहारिक रूप :-जहाँ वीतराग दशा में शत्रु-मित्र पर समभाव रखना सामायिक का पारमार्थिक स्वरूप है, वहां सावद्य-योग का त्याग कर तप, नियम और संयम का साधन करना सामायिक का व्यवहार-पक्ष भी है। इसमें यम-नियम की साधना द्वारा साधक राग-द्वोष पर विजय प्राप्त करने का अभ्यास करता है। व्यवहार पक्ष परमार्थ की ओर बढ़ाने वाला होना चाहिये, इसलिये प्राचार्यों ने कहा है 'जस्स सामाणिो अप्पा, संजमे-नियमे तवे । तस्स, सामाइयं होइ, इहकेवलिभासियं ।। प्रा० ६६ ।। अर्थात् जिसकी आत्मा मूलगुण रूप संयम, उत्तर-गुरग रूप नियम और तपस्या में समाहित है, वैसे अप्रमादी साधक को सम्पूर्ण सामायिक प्राप्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy