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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा..
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सावद्य और आर्त, रौद्र रूप दुर्ध्यान रहित साधक का जो मुहूर्त भर समभाव रहता है इसी को सामायिक व्रत कहा गया है । जैसे कि
'सावद्य कर्म-मुक्तस्य, दुर्ध्यान रहितस्य च । समभावो मुहूर्तं तद्-व्रतं सामायिकं स्मृतम् ।।' धर्म० ३७ ।।
सामायिक में कोई यह नहीं समझ लें कि इसमें कोरा अकर्मण्य होकर बैठना है। व्रत में सदोष-प्रवृत्ति का त्याग और पठन-पाठन-प्रतिलेखन, प्रमार्जन, स्वाध्याय-ध्यान आदि निर्दोष कर्म का आसेवन भी होता है । सदोष कार्य से बचने के लिये निर्दोष में प्रवृत्तिशील रहना आवश्यक भी है, इसीलिये कहा है
'सामाइयं नाम सावज्ज जोगपरि वज्जणं,
निखज्ज जो पडिसेवणं च ।' सामायिक का निरुक्त अर्थ :
___ सामायिक का निरुक्त अर्थ विभिन्न प्रकार से किया गया है, जैसा कि कहा है
रागद्दोस विरहिओ, समोत्ति अयणं अश्रोत्ति गमणं ति । समगमणं ति समाओ, स एव सामाइयं नाम । ३४७७ ।। अहवा समाइं सम्म-तं, नाण चरणाई तेसु तेहि वा । अयणं अग्रो समाओ, स एवं सामाइयं नाम । ३४७६ ।। अहवा समस्सं पायो, गुणाण लाभोत्ति जो समाप्रो सो।
अहवा समस्त मानो, चेनो सामाइयं नाम । ३४८० ।। प्रकारान्तर से अर्थ करते हैं—प्राणिमात्र पर मैत्री भाव रूप साम में अयन-गमन अर्थात् साम्य भाव से रहना अथवा नाम का आय-लाभ जहां हो, वह भी सामायिक है । सम्यगाय का भी प्राकृत में सम्माय बनता है। इस दृष्टि से-सम्यग् भाव से रहना भी सामायिक है और साम्य भाव का जिससे आय लाभ होता हो. तो उसे सामायिक समझना चाहिये । देखिये कहा है
अहवा सामं मित्ती, तत्थ असो तेण होइ समायो। अहवा सामस्सायो, लाभो सामाइयं नाम ॥ ३४८१
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