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________________ • १४ अनिवार्यता की पूर्ति के रूप में शेष रह जाती है । तत्पश्चात् मध्याह्न १२ से २ बजे तक, दो घंटे आप मौन साधना करते। इस दौरान भी १२ बजे से १ बजे तक आप माला फेरते । माला फेरने का आपका समय वर्षों से यही था व आप सदैव ठीक १२ बजे इस हेतु बैठ जाते थे । यदि कभी प्रवचन आदि कारणवशात् देरी हो जाती थी तो आप प्रहार हेतु न बैठकर अपने समय की पाबन्दी बनाए रखते थे । इस प्रकार आपका यह अटूट संकल्प एवं अडिग आत्मविश्वास हमारे लिए प्रेरणास्पद था । शेष एक घण्टा आप मात्र मौन रखते । आप मौन को बड़ा महत्त्व देते थे क्योंकि मुनि का तात्पर्य ही मौन होता है । मौन शक्ति का संचायक व मनन का कारक होता है । मनसा, वचसा और कर्मणा का मौन साधक की साधना को पुष्ट करता है । अत: आप नित्य प्रति दो घण्टे के मौन के साथ प्रत्येक गुरुवार को भी मौन रखते थे व माह की वदी दशमी को तो प्रखण्ड मौन रखा करते, किन्तु इस मौन की एक और विशेषता यह थी कि आप अपने इष्ट प्रभु पार्श्वनाथ की एकान्त निष्काम साधना करते थे । भगवान् पार्श्वनाथ आप श्री के परम इष्ट देव थे । अतः कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन आप अखण्ड मौन के साथ एकान्त शांत निर्जन स्थल पर एकासन तप करते हुए प्रात: लगभग ३-४ घण्टे प्रभुस्मरण में लवलीन रहते । • व्यक्तित्व एवं कृतित्व दो बजे तक मौन रखने के पश्चात् आप एक घण्टे तक शास्त्र - वाचना दिया करते । आपकी यह प्रवृत्ति आपकी शास्त्रीय दृष्टि का परिणाम थी । शास्त्र वाचन द्वारा आप शिष्यों को सारणा, वारणा व धारणा की शिक्षा से संस्कारित एवं आचरण से उन्नत बनाने का प्रयत्न करते । तत्पश्चात् प्राप जनसाधारण से धर्मोन्मुख चर्चा करते । जन सामान्य के न होने पर श्राप पुनः साहित्य-सृजन में रत हो जाते। करीब एक-डेढ़ घण्टे पश्चात् आप स्थंडिल हेतु जाते व निवृत्त होकर प्रहारादि करते । फिर चौविहार इत्यादि चुकाकर आप कुछ देर स्वास्थ्य की दृष्टि से स्थानक में ही टहलते। इस दौरान कहीं कोई कार्य नजर आने पर आप सहर्ष सेवा की सहज भावना से कार्य करने को तत्पर हो उठते । तत्पश्चात् प्राप डायरी लिखा करते थे । एक सच्चे साधक की भांति कोई दुराव-छिपाव न रखते हुए आपके क्रियाकलाप खुली पुस्तक की भाँति होते थे । तत्पश्चात् आप सायंकालीन प्रतिक्रमण प्रायः खड़े होकर ही करते । अन्त में 'कल्याण मन्दिर' इत्यादि स्तोत्रों का जाप करते । फिर आप श्रागन्तुकों की जिज्ञासाओं का समाधान करते । सोने से पूर्व आप सदैव 'नन्दीसूत्र' का वाचन करते । आपकी उपर्युक्त दिनचर्या शास्त्रानुकूल थी । जीवनपर्यन्त प्रापकी प्रवृत्तियाँ अप्रमत्तता से युक्त रहीं । आप सदैव प्रमोद भाव में विचरण करते थे । आपके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम आपके पदचिह्नों पर वलकर अपना व जिनशासन का गौरव बढ़ाएँ और अपने जीवन को सार्थक करें । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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