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________________ अप्रमत्त साधक की आदर्श दिनचर्या श्री गौतम मुनि "अल कुसलस्स पमाएणं" अर्थात् प्रज्ञाशील साधक अपनी साधना में किंचित् मात्र भी प्रमाद नहीं करता। 'आचारांग' की यह सूक्ति आपके लिए, हमारे लिए मात्र अध्ययन का विषय हो सकती है किन्तु उस युग-द्रष्टा, दिव्य मनीषी आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. ने तो इसे अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था। आप श्री की दिनचर्या सूर्योदय से बहुत पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती थी। एक बार सोने के पश्चात् रात्रि में जब कभी आपकी निद्रा खुल जाती थी, आप शय्या त्याग देते थे । उठने के लिए समय का इन्तजार आपने कभी नहीं किया। उठते ही आप ध्यान-योग की साधना करते। ध्यान व जाप के पश्चात् आप प्राणायाम करते थे जो तन व मन दोनों का नियामक है। प्राणायाम के पश्चात् जब सूर्योदय में लगभग एक घण्टा शेष रहता था, आप प्रातःकालीन प्रतिक्रमण करते थे। प्रतिक्रमण के पश्चात् आप 'भक्तामर स्तोत्र' इत्यादि का लवलीनता के साथ स्मरण करते थे, जब तक कि सूर्योदय न हो जाए। प्रतिलेखनादि कार्यों से निवृत्त होकर सूर्योदय के पश्चात् आप स्थंडिलार्थ पधारते थे। इस हेतु आप दूर, नगर से बाहर तक जाकर प्रातःकालीन भ्रमण के उद्देश्य की प्रति भी कर लेते थे। लौटकर आप अल्पाहार हेतु बैठते किन्तु वास्तव में इसे अल्पाहार के स्थान पर पयपान की संज्ञा देना अधिक यथार्थपरक होगा क्योंकि इस दौरान आप प्रायः मात्र पेय पदार्थ ही ग्रहण करते थे, वह भी मात्र जीवन के संचरण हेतु, अन्यथा आपको अपनी नश्वर देह से किंचित् मात्र भी मोह नहीं था। इसके पश्चात् आप मनोयोगपूर्वक साहित्य-साधना में संलग्न हो जाते। आपकी यह साहित्य-सृजन की प्रवृत्ति जीवन के संध्याकाल को छोड़कर सदैव कायम रही, मात्र उन दिनों को छोड़कर जब आप श्री विहार करते थे क्योंकि आप सामान्यतः प्रात:काल के समय ही विहार करते थे। विहार करने के अलावा अन्य सामान्य दिनों में आप साहित्य-सृजन के पश्चात् प्रवचन-स्थल की ओर प्रस्थान कर देते थे। प्रवचन की आपकी शैली अत्यन्त सारगर्भित एवं हृदयाभिगम होती थी। शान्त, सौम्य मुखमुद्रा सहज ही श्रावकों का मन मोह लेती थी। प्रवचन के पश्चात् पाप आहारादि के लिए बैठा करते किन्तु प्रांतरिक सत्य, जो सर्वविदित नहीं, यही है कि आप प्राय: एक ही समय आहार करते थे व प्रातःकालीन आहार का त्याग कर देते थे। इस तरह गुप्त तपस्या करके आप इस तथ्य की पुष्टि करते थे कि जैसे-जैसे चेतना बढ़ती जाती है वैसे-वैसे साधक की रुचि आहार के प्रति कम होने लगती है व अन्ततोगत्वा वह मात्र एक नैसर्गिक *विद्वत संगोष्ठी में दिये गये प्रवचन से कुमारी अनुपमा कर्णावट द्वारा संकलिन-संपादित अंश । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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