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________________ · श्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. बहुत बड़ा कीर्तिमान स्थापित किया । शास्त्रार्थ के क्षेत्र में यह आपकी सबसे बड़ी देन थी । २३ε प्रतिभा खोज - स्था० समाज में विद्वानों और पंडितों की विपुलता अधिक नहीं रही है । आपने इस आवश्यकता को पहचाना । अज्ञानियों के समक्ष तो हीरे भी काचवत् होते हैं । रत्नों की परीक्षा जौहरी ही कर सकते हैं और आप तो जौहरियों के भी गुरु थे । पहले समाज के कुछ व्यक्ति विद्वानों से यही आशा करते थे कि वे ज्ञान-दान हमेशा मुफ्त में ही देते रहें । जबकि वे यह भूल जाते थे कि विद्वान् भी गृहस्थ ही होते हैं । उनकी भी पारिबारिक आवश्यकताएँ होती हैं । आपने अपनी पैनी दृष्टि से इसका अनुभव किया और विद्वानों के लिए तदनुरूप व्यवस्था की । उनको समाज में पूरे आदर-सम्मान के साथ प्रतिष्ठित किया । जिनकी प्रतिभा पर आवरण आया हुआ था, ऐसे अनेक व्यक्तियों को आपने पहचाना, उन्हें प्रेरित किया, प्रोत्साहित किया और आगे बढ़ाया। आज वे अपना और समाज का नाम रोशन कर रहे हैं । संस्कारवान विद्वान् तैयार करने में आपके सदुपदेशों से स्थापित संस्था जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान, जयपुर पं० श्री कन्हैयालाल जी लोढ़ा के संयोजन में बहुत उल्लेखनीय कार्य कर रही है । स्था० समाज में पहली बार ही विद्वत् परिषद् की स्थापना श्रापके सदुपदेशों से ही हुई । इस प्रकार विद्वत्ता की परम्परा और विद्वानों की परम्परा आचार्य श्री की अतीव महत्वपूर्ण देन है । प्राचीन ग्रंथों एवं शास्त्रों की सुरक्षा - समाज में हस्तलिखित शास्त्रों और ग्रन्थों की बहुत प्राचीन और समृद्ध परम्परा रही है, परन्तु पहले मुनिगण अपनेअपने विश्वसनीय गृहस्थों के यहाँ बस्ते बाँध बाँधकर रखवा देते थे और आवश्यकता होने पर वहाँ से मंगवाकर वापस भिजवा देते थे । इस व्यवस्था में कभी-कभी मुनिराज का अचानक स्वर्गवास हो जाने से बस्ते गृहस्थों के घर ही रह जाते और विस्मृत होकर लुंज-पुंज हो जाते थे । अलग-अलग स्थान पर रखे रहने से न तो उनकी सूची बन पाती, न ही विद्वान् उनका उपयोग कर पाते एवं महत्त्वपूर्ण साहित्य अन्धेरी कन्दरानों में सड़ता रहता था । आपने इस घोर अव्यवस्था की परम्परा का अन्त कर जयपुर लाल भवन में सभी उपलब्ध हस्तलिखित ग्रन्थों और ग्रागमों को एकत्रित कर सूचियाँ बनवायीं जिससे वे पूर्णतया सुरक्षित हो गये और विद्वद्जन उनसे लाभ उठा सकते हैं । संस्थानों के क्षेत्र में -- समाज सेवा के विभिन्न आयामों की पूर्ति हेतु आपके सदुपदेशों से प्रेरित होकर विभिन्न स्थानों पर बीसियों संस्थाएँ स्थापित हुईं। बहुत से स्थानों पर देखा जाता है कि मुनिराजों के विहार के साथ-साथ संस्थाओं कार्यालयों का भी विहार होता रहता है । परन्तु आपने इस दिशा में एक नई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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