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________________ • २३८ · अलावा और किसी का अध्ययन नहीं करना चाहिये । विपक्षी समाज पर आक्षेप लगाते थे कि स्थानकवासी समाज में व्याकरण को व्याधिकरण समझा जाता है । ऐसे समय में प्राचार्य श्री ने संस्कृत भाषा पर भी अधिकारपूर्ण पांडित्य प्राप्त किया एवं अपने शिष्यों व अनेक श्रावकों को ज्ञानार्जन एवं पांडित्य - प्राप्ति के लिए प्रोत्साहित किया । ज्ञान के क्षेत्र में आपकी यह प्रमुख देन थी । व्यक्तित्व एवं कृतित्व शास्त्रार्थ - वि० सं० १९८६ - ६० में अजमेर साधु-ससम्मेलन से पूर्व किशनगढ़ में रत्नवंशीय साधु सम्मेलन का आयोजन था । उसमें अजमेर सम्मेलन में अपनायी जाने वाली रीति-नीति सम्बन्धी विचार-विमर्श करना था । उस समय में आचार्य श्री केवल एक दित के लिए केकड़ी पधारे । वह युग शास्त्रार्थ का युग था और केकड़ी तो शास्त्रार्थों की प्रसिद्ध भूमि रही है । दिगम्बर जैन शास्त्रार्थ संघ, अम्बाला की स्थापना के तुरन्त बाद ही उनको सर्वप्रथम शास्त्रार्थ Shaड़ी में ही करना पड़ा था । यह शास्त्रार्थ मौखिक रूप से आमने-सामने स्टेज लगाकर ६ दिन तक चला था । Jain Educationa International 1 स्थानकवासी समाज के कोई भी विद्वान् संत-सती केकड़ी पधारते थे तो आते ही उन्हें शास्त्रार्थ का चैलेंज मिलता था । तदनुरूप आचार्य श्री को पधारते ही चैलेंज मिला तो आचार्य श्री ने फरमाया कि यद्यपि मुझे बहुत जल्दी है किन्तु यदि मैंने विहार कर दिया तो यही समझेंगे कि डरकर भाग गये अतः उन्होंने ८ दिन विराजकर शास्त्रार्थ किया । श्वे. मू. पू. समाज की ओर से शास्त्रार्थकर्ता श्री मूलचन्द जी श्रीमाल थे । ये पं० श्री घेवरचन्द जी बांठिया ( वर्तमान में ज्ञानगच्छीय मुनि श्री ) के श्वसुर थे । ये श्री कानमल जी कर्णावट के नाम से शास्त्रार्थ करते थे । संयोग देखिए कि शास्त्रार्थ के निर्णायक भी इन्हीं पं० सा० मूलचन्द जी श्रीमाल को बनाया गया । और इनको अपने निर्णय में कहना पड़ा कि आचार्य श्री का पक्ष जैन दर्शन की दृष्टि से सही है किन्तु अन्य दर्शनों की दृष्टि से कुछ बाधा आती हैं । प्राचार्य श्री फरमाया कि मैं एक जैन आचार्य हूँ और जैन दर्शन के अनुसार मेरा पक्ष और समाधान सही है । मुझे इसके अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिये । इस प्रकार केकड़ी में शास्त्रार्थ में विजयश्री प्राप्त करने के बाद ही आचार्य श्री ने विहार किया । शास्त्रार्थ में आचार्य श्री ने संस्कृत में शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी। इसके बाद सन् १९३६ के अजमेर चातुर्मास में आचार्य प्रवर ने श्वे० मू० पू० समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् संत श्री दर्शनविजयजी को सिंहनाद करते हुए संस्कृत में शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारा। शुद्ध सनातन जैन समाज अर्थात् स्था० जैन समाज की ओर से संस्कृत में शास्त्रार्थ की चुनौती दिये जाना अभूतपूर्वं ऐतिहासिक घटना थी । जो इसके पहले और इसके बाद आज तक कभी नहीं हुई । आचार्य भगवन्त ने यह For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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