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कलाचारी, शिल्पाचारी और धर्माचारी
- उपाध्याय श्री मानचन्द्रजी म. सा. बन्धुओ !
नवपद आराधना के मंगलमय दिवस चल रहे हैं । आज तीसरा दिवस है । नमस्कार महामंत्र में भी 'नमो आयरियाणं' आचार्य पद तीसरा है। आचार्य पद मध्य का पद है । इस पद पर दोहरा कर्तव्य निभाना होता है । दहेली-दीपक न्याय की तरह उन्हें अपने जीवन को आगे बढ़ाने के लिए अरिहंत-सिद्ध का ध्यान रखना है और पीछे उपाध्याय-साधु जीवन का भी ध्यान रखना होता है । आचार्य स्वयं पंचाचार का पालन करते हैं, करवाते हैं।
वर्तमान समय में तीर्थंकर नहीं, गणधर नहीं, केवली नहीं, पूर्वधर नहीं इसलिए चतुर्विध संघ का भार आचार्य पर रहता है । प्राचार्य को परम पिता कहा है। जन्म देने वाला पिता होता है लेकिन प्राचार्य कल्याण का मार्ग दिखाता है, इसलिए उन्हें भी परम पिता कहा है । प्राचार्य के छत्तीस गुण कहे गये हैं । गुणों को लेकर ही पूजा का कारण माना गया । 'गुणापूज्या स्थान न च लिंग न च वयं' । हम गुणपूजक हैं, व्यक्तिपूजक नहीं।
गुणों की महत्ता है अन्यथा आचार्य के नाम से जाति भी है । डाकोत भी अपने आपको प्राचार्य कहते हैं । नाम मात्र से प्राचार्य-उपाध्याय तो कई हैं लेकिन वे भाव से पूज्य नहीं होते । आचार्य गुण-सम्पन्न होने चाहिए।
आचार्य श्री हस्तीमलजी म० गुणों के धारक थे। उनके स्वर्गवास हो जाने के बाद उनकी कीर्ति और अधिक बढ़ गई। उनके जीते जी न इतने गुणगान किए जाते और न ही वे महापुरुष गुण-कीर्तन पसन्द ही करते । वे स्वयं गुणानुवाद के लिए रोक लगा देते थे । मदनगंज में प्राचार्य पद दिवस था। उस समय संतों के बोल चुकने के बाद मेरा नम्बर था लेकिन आचार्य भगवन्त ने उद्बोधन दे दिया । उसके बाद मुझसे कहा-तुम्हें भगवान ऋषभदेव के लिए बोलना है । मेरे बारे में बोलने की जरूरत नहीं । कैसे निस्पृही थे वे महापुरुष ! वे प्रशंसा चाहते ही नहीं थे।
__ चाह छोड़ धीरज मिले, पग-पग मिले विशेष । प्रशंसा चाहने या कहने से नहीं मिलती । वह तो गुणों के कारण सहज मिलती है । आचार्य भगवन्त नहीं चाहते थे कि लोग इकट्ठे हों पर उनकी पुण्य प्रकृति के कारण लोगों का हर समय आना-जाना बना ही रहता * जोधपुर में आयोजित विद्वत् संगोष्ठी में १७-१०-६१ को दिये गये प्रवचन से श्री नौरतन मेहता द्वारा संकलित-सम्पादित अंश ।
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