SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व नहीं होगा तो आपका यह धर्माचरण का रूप बाहर में रामनामी दुपट्टे की तरह धर्म को लज्जित करने वाला बन सकता है।" भगवन् सच्चे साधक थे। उनके व्यक्तित्व में साधना की चमक थी। ममता-मोह का निकन्दन कर के कमलवत् रहे । अपने-पराये का उनके जीवन में भेद नहीं था। भगवन् के दरबार में जो भी आया, खाली नहीं गया । हर आगत से चाहे वह जैन हो-अजैन हो, स्त्री हो, पुरुष हो, बालक-बालिका कोई भी क्यों न हो, आगत से उनका पहला प्रश्न होता-क्या करते हो ? माला जपते हो ? सामायिक होती है ? स्वाध्याय करते हो या नहीं ? प्रेमपूर्वक स्मरण-भजन, सामायिक-स्वाध्याय की भगवन् की प्रेरणा पाकर लाखों भक्तों का जीवन बदला है। आचार्य भगवन् के साधनामय जीवन के अनेक सूत्र हैं। उन पर घण्टों नहीं, दिनों तक, महिनों तक कहा जा सकता है। आपका यहाँ आना, संगोष्ठी कर लेना ही जीवन-विकास के लिए पर्याप्त नहीं है । आप आचार्य भगवन्त के व्यक्तित्व और कृतित्व को कहने-सुनने समझने आये हैं तो अपने जीवन में कुछ आचरण का रूप अपनायें, तब ही भगवन्त के बताये मार्ग पर आगे बढ़ने के अधिकारी हो सकेंगे। मात्र कहने से कभी असर नहीं होता, जीवन में आचरण का रूप आये तो असर हो सकेगा। आप साधना, स्वाध्याय सेवा, निर्व्यसनता किसी एक सूत्र को पकड़ लें तो फूल नहीं फूल की पंखुड़ी अर्पित करके आगे बढ़ेंगे । भगवन् की सद् शिक्षाएँ आचरण में आयें, तभी आपका यहाँ पाना, सुनना-सुनाना और संगोष्ठी करना सार्थक होगा। सन्त - महिमा समझ नर साघु किनके मिन्त ।। तेर ।। होत सुखी जहाँ लहे वसेरो, कर डेरा एकन्त । जल सूं कमल रहे नित न्यारो, इण पर सन्त महन्त ।। १ ।। परम प्रेम घर नर नित ध्यावे, गावे गुण गुणवन्त । तिलभर नेह धरे नहीं दिल में, सुगण सिरोमणि सन्त ।। २ ।। भगत जुगत कर जमत रिझावे, पिण नाणे मन भ्रन्त । परम पुरुष की प्रीत रंगाणी, जाणी शिवपुर पन्थ ।। ३ ।। 'रतन' जतन कर सद्गुण सेवो, इणको एहिज तंत। टुकभर महर हुवे सद्गुरु की, आपे सुख अनंत ।। ४ ।। -आचार्य श्री रतनचन्दजी म. सा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy