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________________ • १८२ Jain Educationa International आचार्य श्री की जप, स्वाध्याय, लेखन, पठन-पाठन, प्रवचन, चिंतन, मनन श्रादि विधि - आत्मक साधना का लक्ष्य भी राग-द्व ेष, विषय- कषाय पर विजय पाना था और निषेधात्मक साधना का लक्ष्य भी यही था । आपकी विधिआत्मक साधना निषेधात्मक साधना को पुष्ट करने वाली थी और निषेधात्मक साधना से मिली शक्ति व स्फूर्ति विधि- आत्मक साधना को पुष्ट करने वाली थी । इस प्रकार विधि- प्रात्मक एवं निषेधात्मक ये दोनों साधनाएँ परस्पर पूरक, पोषक व वीतरागता की ओर आगे बढ़ाने में सहायक थीं । आचार्य श्री की साधना उनके जीवन की अभिन्न अंग थी । जीवन ही साधना था, साधना ही जीवन था । आचार्य श्री ने साधना कर अपने जीवन को सफल बनाया । इसी मार्ग पर चलने, अनुकरण व अनुसरण करने में ही हमारे जीवन की सार्थकता व सफलता है । • व्यक्तित्व एवं कृतित्व · - अधिष्ठाता, श्री जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान ए-६, महावीर उद्यान पथ, बजाज नगर, जयपुर - ३०२०१७ श्रमृत-करण सामायिक अर्थात् समभाव उसी को रह सकता है, जो स्वयं को प्रत्येक भय से मुक्त रखता है । - सूत्रकृतांग • जिस प्रकार पुष्पों की राशि में से बहुत सी मालाएँ बनाई जा सकती हैं, उसी प्रकार संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य को चाहिए कि वह शुभ कार्यों की माला गूंथे । - धम्मपद For Personal and Private Use Only जिसका वृत्तान्त सुनकर, जिसको देखकर, जिसका स्मरण करके समस्त प्राणियों को श्रानन्द होता है, उसी का जीवन शोभा देता है - प्रर्थात् सफल होता है । - योगवशिष्ठ www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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