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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. 1 'खण निकमो रहणो नहि, करणो प्रतम काज' अर्थात् 'साधना में क्षरण मात्र का भी प्रमाद न करना' यह सूत्र आचार्य श्री की साधना का मूलमंत्र था । स्वर्गवास के कुछ मास पूर्व तक स्वस्थ अवस्था में प्राचार्य श्री ने दिन में निद्रा कभी नहीं ली । वे स्वयं तो किसी न किसी सद्प्रवृत्ति में लगे ही रहते थे साथ ही अपने पास बैठे दर्शनार्थियों को भी स्वाध्याय, जप, लेखन आदि किसी न किसी सद्प्रवृत्ति में लगा देते थे। किसी का समय विकथा व सावद्य ( दूषित ) प्रवृत्ति में न जाने पावे, इसके प्रति वे सदा सजग रहते थे । प्रागन्तुक दर्शनार्थी को आते ही उसकी साधना कैसी चल रही है तथा उसके ग्राम में धर्म-ध्यान कितना हो रहा है, यह पूछते थे । फिर उसे उसकी पात्रता के अनुसार आगे के लिए साधना करने की प्रेरणा देते थे । कौनसा व्यक्ति किस प्रकार की साधना का पात्र है, इसके आचार्य श्री विलक्षण परखैया थे । जो जैसा पात्र होता उसे वैसी ही साधना की और आगे बढ़ाते थे । धनवानों व उद्योगपतियों को परिग्रह-परिमाण करने एवं उदारतापूर्वक दान देने की प्रेरणा देते थे । उनके बच्चों को दुर्व्यसनों का त्याग कराते एवं सामायिक स्वाध्याय करने का व्रत दिलाते । विद्वानों को लेखन-चिंतन की व अनुसंधान - अन्वेषण की प्रेरणा देते थे । श्राविकाओं को गृहस्थ के कार्य में हिंसा, अपव्यय, अखाद्य से कैसे बचें, बच्चों को सुसंस्कारित कैसे बनायें, मार्गदर्शन करते थे । सामान्य जनों एवं सभी को स्वाध्याय व सामायिक की प्रेरणा ते नहीं थकते थे । साधक साधना पथ पर आगे बढ़े एतदर्थ ध्यान- मौन, व्रतप्रत्याख्यान, त्याग तप की प्रेरणा बराबर देते रहते । आपकी प्रेरणा के फलस्वरूप सैकड़ों स्वाध्यायी, बीसों लेखक, अनेक साधक व कार्यकर्ता तैयार हुए, बीसों संस्थाएं खुलीं। इस लेख के लेखक का लेखन व सेवा के क्षेत्र में आना प्राचार्य श्री की कृपा का ही फल है । I • १८१ आचार्य श्री का विधि- प्रात्मक साधना के बीच में समय-समय पर ध्यान, मौन, एकान्त आदि निषेधात्मक साधना का क्रम भी चलता रहता था यथाआचार्य श्री के हर गुरुवार, हर मास की बदि दशमी, हर पक्ष की तेरस, प्रतिदिन मध्याह्न में १२ बजे से २ बजे तक तथा प्रातः काल लगभग एक प्रहर तक मौन रहती थी । मध्याह्न में १२ बजे से लगभग एक मुहूर्त्त का ध्यान नियमित करते रहे । आचार्य श्री की यह मौन-ध्यान आदि की विशेष साधना चिंतन, मनन, लेखन आदि विधि प्रात्मक साधना के लिए शक्ति देने वाली व पुष्ट करने वाली होती थी । आचार्य श्री रात्रि में प्रतिक्रमण व दिन में आहार-विहार के शुद्धिकरण के पश्चात् 'नंदीसूत्र' आदि किसी आगम का स्वाध्याय, जिज्ञासुत्रों की शंकाओं का समाधान, कल्याण मन्दिर आदि स्तोत्र से भगवद्भक्ति आदि धर्म-साधना नियमित करते थे । रात्रि को प्रत्यल्प निद्रा लेते थे । रात्रि में अधिकांश समय ध्यान-साधना में ही रत रहते थे । आशय यह है कि आचार्य श्री सारे समय किसी न किसी प्रकार की साधना में निरंतर निरत रहते थे । 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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