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साधना का महत्त्व :
यह नियम है कि निषेधात्मक साधना के परिपक्व होते ही विधि - आत्मक साधना स्वतः होने लगती है । यदि साधक के जीवन में विधि- प्रात्मक साधना की अभिव्यक्ति नहीं होती है तो समझना चाहिये कि निषेधात्मक साधना परिपक्व नहीं हुई है। यही नहीं, विधि प्रात्मक साधना के बिना निषेधात्मक साधना निष्प्राण है । ऐसी निष्प्राण निषेधात्मक साधना अकर्मण्य व कर्तव्यहीन बनाती है जो फिर अकर्तव्य के रूप में प्रकट होती है। साधक के जीवन में साधना के निषेधात्मक एवं विधि- प्रात्मक इन दोनों अंगों में से किसी भी अंग की कमी है तो यह निश्चित है कि दूसरे अंग में भी कमी है । अथवा यह कहा जा सकता है कि निषेधात्मक साधना के बिना विधि - प्रात्मक साधना अधूरी है और विधि-प्रात्मक साधना के बिना निषेधात्मक साधना अधूरी है । अधूरी साधना सिद्धिदायक नहीं होती है । अतः साधक के जीवन में साधना के दोनों ही अंगों की परिपक्वता - परिपूर्णता आवश्यक है । वही सिद्धिदायक होती है ।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इस तथ्य को अध्यात्मज्ञान और मनोविज्ञान इन दोनों को मिलाकर कहे तो यों कहा जा सकता है कि इन्द्रिय-संयम, कषाय आदि दोषों (पापों) के त्याग रूप निषेधात्मक साधना से आत्म शुद्धि होती है और उस श्रात्म-शुद्धि की अभिव्यक्ति जीवन में सत्मन, सत्य वचन, सत्कार्य रूप सद्प्रवृत्तियों-सद्गुणों में होती है, यही विधि - प्रात्मक साधना है । इसी विधि प्रात्मक साधना को जैनदर्शन में शुभ योग कहा गया है और शुभ योग को संवर कहा है । अतः शुभ योग आत्म शुद्धि का ही द्योतक है । कारण कि अध्यात्म एवं कर्म - सिद्धान्त का यह नियम है कि जितना - जितना यह कषाय घटता जाता है उतनी उतनी ग्रात्म-शुद्धि होती जाती है - प्रात्मा की पवित्रता बढ़ती जाती है। जितनी जितनी श्रात्म शुद्धि बढ़ती जाती है, उतना उतना योगों में - मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों में शुभत्व बढ़ता जाता है । प्रवृत्तियों का यह 'शुभत्व' शुद्धत्व ( शुद्धभाव ) का ही अभिव्यक्त रूप है। शुद्धत्व भाव है और शुभत्व उस शुद्धभाव की अभिव्यक्ति है । इस शुभत्व एवं शुद्धत्व की परिपूर्णता में ही सिद्धि की उपलब्धि है ।
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प्राचार्य श्री की साधना व प्रेरणा :
आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. के जीवन में साधना के दोनों अंगश्रर्थात् निषेधात्मक साधना एवं विधि- प्रात्मक साधना - परिपुष्ट परिलक्षित होते हैं । उनके साधनामय जीवन में दिन के समय विधि - प्रात्मक साधना की और रात्रि के समय निषेध-आत्मक साधना की प्रधानता रहती थी। दिन में सूर्योदय होते ही आचार्य प्रवर स्वाध्याय, लेखन, पठन-पाठन, उद्बोधन आदि किसी न किसी सद्प्रवृत्ति में लग जाते थे और यह क्रम सूर्यास्त तक चलता रहता था ।
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