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________________ • १५८ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व देते हुए प्राचार्य श्री कहते हैं 'ममता से मैं-मैं करने वाले को काल रूपी शेर एक दिन दबोच लेगा और इन सारे मैं-मैं के खेल को एक झटके में ही खत्म कर देगा।' एक अन्य स्थल पर उन्होंने काल को सांप एवं मानव-जीवन को मेंढ़क की उपमा दी है। सांप और उसकी केंचुली के सम्बन्ध की चर्चा करते हुए उन्होंने राग-त्याग की बात कही है-'सांप की तरह त्यागी हुई केंचुली रूपी वस्तु की ओर मुड़ कर नहीं देखोगे तो जाना जाएगा कि आपने राग के त्याग के मर्म को समझा है।' मन को तुरंग और ज्ञान को लगाम की उपमा देते हए प्राचार्य श्री कहते हैं-'ज्ञान की बागडोर यदि हाथ लग जाए तो चंचल-मनतुरंग को वश में रखा जा सकता है। एक अन्य स्थल पर धर्म को रथ की उपमा देते हुए कहा है-'धर्म-रथ के दो घोड़े हैं-तप और संयम ।' स्वधर्म वत्सल भाव के सम्बन्ध को समझाते हुए गाय और बछड़े की सटीक उपमा दी गयी है-'हजारों बछड़ों के बीच एक गाय को छोड़ दीजिए। गाय वात्सल्य भाव के कारण अपने ही बछड़े के पास पहुँचेगी, उसी तरह लाखोंकरोड़ों आदमियों में भी साधर्मी भाई को न भूलें ।' कृषि हमारी संस्कृति का मूल आधार है। कृषि में जो नियम लागू होते हैं वही संस्कृति में भी। हृदय को खेत का रूपक देते हुए आचार्य श्री कहते हैं-'हृदय रूप खेत में सत्य, अहिंसा और प्रभु भक्ति का वृक्ष लगाइये जिससे हृदय लहलहायेगा और मन निःशंक, निश्चिन्त और शान्त रहेगा।' आहारविवेक की चर्चा करते हुए आचार्य श्री फरमाते हैं-'जिस तरह भंवरा एक-एक फूल से थोड़ा-थोड़ा रस लेता है और उसे पीड़ा नहीं होने देता है, उसी तरह से साधकों को भी आहार लेना चाहिए।' चरित्रवान मानव की अपनी विशिष्ट अवस्थिति और पहचान है । उसे नमक की उपमा देते हुए आचार्य श्री कहते हैं-'चरित्रवान मानव नमक है, जो सारे संसार की सब्जी का जायका बदल देता है।' चक्की और कील के माध्यम से संसार और धर्म के सम्बन्ध को समझाते हुए आचार्य श्री फरमाते हैं-'संसार की चक्की में धर्म की कील है। यदि इस कील की शरण में आ जानोगे तो जन्म-मरण के पाटों से चकनाचूर होने से बच जानोगे।' श्रीमन्तों को प्रेरणा देते हुए आचार्य श्री कहते हैं कि उन्हें 'समाज की आँखों में काजल बनकर रहना चाहिए जो कि खटके नहीं, न कि कंकर बनकर जो खटकता हो।' आचार्य श्री की सूक्तियाँ बड़ी सटीक और प्रेरक हैं । यथा१. आचरण भक्ति का सक्रिय रूप है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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