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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
• १५७
तत्त्व जागत है, वही चेतनाशील है। आचार्य श्री के शब्दों में 'ऐसा व्यक्ति जो शांत चित्त से ज्ञान की गंगा में गहराई से गोता लगाता है, वह मूक ज्ञान से भी लाभ ले लेगा। ज्ञान के जलाशय में डुबकी लगाने से राग-द्वष रूपी ताप मन्द पड़ता है।' आज ज्ञान के साथ हिंसा और क्रूरता जुड़ गयी है क्योंकि ज्ञान के साथ सत्संग का बल नहीं है। आचार्य श्री ने एक जगह कहा है-'सत्संग एक सरोवर के सदृश्य है जिसके निकट पहुँचने से ही शीतलता, स्फूर्ति तथा दिमाग में तरी आ जाती है।' भक्त के हृदय में बहता हुआ विशुद्ध भक्ति का निर्भर उसके कलुष को धो देता है और आत्मा निष्कलुष बन जाता है।' पर सत्संग और वियेक का अभाव व्यक्ति को ममता और आसक्ति में बांध देता है। वह अनावश्यक धन संग्रह और परिग्रह में उलझ जाता है। इस सत्य को आचार्य श्री यों व्यक्त करते हैं-'रजत, स्वर्ण, हीरे और जवाहरात का परिग्रह भार है । भार नौका को दरिया में डुबोता है और यह परिग्रह रूपी भार आत्मा को भव-सागर में डुबोता है।'
अग्नि तत्त्व ज्ञान और तप का प्रतीक है पर जब यह तत्त्व क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों में मिल जाता है तब प्रकाश न देकर संताप देता है। आचार्य श्री के शब्दों में 'जैसे गर्म भट्टी पर चढ़ा हुआ जल बिना हिलाए ही अशांत रहता है, उसी प्रकार मनुष्य भी जब तक कषाय की भट्टी पर चढ़ा रहेगा तब तक अशांत और उद्विग्न बना रहेगा।' समता भाव लाकर ही उसे शांत किया जा सकता है। आचार्य श्री के शब्दों में 'भट्टी पर चढ़ाए उबलते पानी को भट्टी से अलग हटा देने से ही उसमें शीतलता आती है। इसी प्रकार नानाविध मानसिक संताप से संतप्त मानव सामायिक-साधना करके ही शांति लाभ कर सकता है।'
शरीर और आत्मा भिन्न हैं, इस तथ्य को समझाते हुए आचार्य श्री कहते हैं – 'चकमक से अलग नहीं दिखने वाली आग भी जैसे चकमक पत्थर से भिन्न है, वैसे प्रात्मा शरीर से भिन्न नहीं दिखने पर भी वस्तुतः भिन्न है।' यह ज्ञान चेतना का विकास होने पर ही संभव है। आचार्य श्री के शब्दों में-'हृदय में व्याप्त अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए चेतना की तूली जलानी होगी।' ज्ञानाग्नि के प्रज्वलित होने पर पुरातन कर्म दग्ध हो जाते हैं। इसी दृष्टि से तपस्या को अग्नि कहा गया है। आचार्य श्री के शब्दों में- 'जैसे आग की चिनगारी मनों भर भूसे को जलाने के लिए काफी है, वैसे ही तपस्या की चिनगारी कर्मों को काटने के लिए काफी है।'
आचार्य श्री ने कृषि एवं पशु-पक्षी जगत् से भी कई उपमान लिए हैं । काल अर्थात् मृत्यु पर किसी का वश नहीं चलता। काल को शेर की उपमा
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