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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा..
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के नियम हजारों लोगों को दिलाये। सामायिक केवल तन की न हो, मन की हो, इसके लिए स्वाध्याय और ध्यान को सामायिक के साथ जोड़ा। जगह-जगह सामायिक संघ गठित करने की प्रेरणा दी। नारी-समाज में इससे विशेष जागृति आई और पारम्परिक धार्मिक क्रिया के साथ ज्ञानाराधना जुड़ी।
आचार्य श्री करुणहृदय, पर दु:खकातर और परम दयालु थे। वे प्रवृत्ति रूप सकारात्मक अहिंसा के पक्षधर थे। वे कहा करते थे-यदि ज्ञानी किसी के आँसू न पोंछ सके तो उसके ज्ञान की क्या सार्थकता ? यदि कोई धार्मिक किसी दुःखी के दुःख-निवारण में सहयोगी न बन सके तो वह कैसा धर्म ? यदि कोई धनिक किसी संकटग्रस्त को सहायता न पहुँचा सके तो वह कैसा धनी ? आचार्य श्री आत्म-धन को महत्त्व देते थे, द्रव्य धन को नहीं। वे धार्मिकों को सावचेत करते हुए कहते थे-"सोना, चाँदी, हीरे-जवाहरात के ऊपर तुम सवार रहो, लेकिन तुम्हारे ऊपर धन सवार नहीं हो। यदि धन तुम हर सवार हो गया तो वह तुमको नीचे डुबो देगा।" उन्होंने श्रीमन्तों को सलाह दी कि वे "समाज की आँखों में काजल बनकर रहें, जो खटके नहीं, न कि कंकर बनकर जो खटकता हो" । प्राचार्य श्री की साधना के तप से प्रदीप्त इस वाणी का बड़ा असर पड़ा। फलस्वरूप देश के विभिन्न क्षेत्रों में जीवदया, वात्सल्य फण्ड, बन्धु कल्याण कोष, चिकित्सालय, छात्रावास, पुस्तकालय, बुक बैंक आदि के माध्यम से कई जनहितकारी प्रवृत्तियाँ सक्रिय हैं।
आचार्य श्री अप्रमत्त साधक थे। वे प्रतिदिन घंटों मौन रहकर अपनी शक्ति का सदुपयोग ध्यान, जप, तप, स्वाध्याय व साहित्य-सर्जना में करते थे। उनकी साहित्य-साधना बहुमुखी थी । एक ओर उन्होंने 'नन्दीसूत्र', 'प्रश्नव्याकरण', 'बृहत्कल्प सूत्र', 'अन्तगड़ दशाँग' 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक' जैसे प्राकृत आगम ग्रंथों की टीका लिखी, विवेचना की तो दूसरी ओर आत्मकल्याण, लोकहित, संस्कृति-संरक्षण और समाजोन्नति के लिए व्याख्यान दिये। उनकी यह वाणी 'गजेन्द्र व्याख्यान माला' भाग १ से ७, 'आध्यात्मिक आलोक भाग १ से ४ व 'प्रार्थना प्रवचन' में संकलित है। प्रवचन-साहित्य की यह अमूल्य निधि है । प्राकृत, संस्कृत, न्याय, दर्शन, व्याकरण, काव्य के उद्भट विद्वान् होकर भी प्राचार्य श्री अपने लेखन में सहज, सरल थे। उनका बल विद्वत्ता पर नहीं विनम्रता पर, पांडित्य पर नहीं आचरण पर रहता था । वे कहा करते थेजो क्रियावान है वही विद्वान् है-“यस्तु क्रियावान पुरुषः स विद्वान्" । उनकी प्रेरणा से 'अ० भा० जैन विद्वत् परिषद' का गठन हुआ और जयपुर में 'आचार्य' विनयचन्द ज्ञान भण्डार' की स्थापना हुई जहाँ हजारों की संख्या में दुर्लभ पांडुलिपियां, कलात्मक चित्र और नक्शे संगृहीत हैं ।
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