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________________ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व सुधार का साधन बने, इस दृष्टि से आचार्य श्री ने सम्यग्ज्ञान-सही जीवनदष्टि पर बल दिया और आज से ५० वर्ष पूर्व "सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल" की स्थापना का उपदेश दिया । मण्डल द्वारा न केवल जीवन-उत्थानकारी साहित्य प्रकाशित होता है वरन् नियमित रूप से मासिक पत्रिका "जिनवाणी" का प्रकाशन किया जाता है जिसके सामायिक, स्वाध्याय, ध्यान, तप, कर्म सिद्धान्त, अपरिग्रह आदि विशेषांक भारतीय दर्शन और संस्कृति के मर्म को उद्घाटित करने में विशेष सफल और उपयोगी रहे हैं। आचार्य श्री कहा करते थे-मात्र जीवन निर्वाहकारी शिक्षा से जीवन सफल और उन्नत नहीं हो सकता । इसके लिये आवश्यक है-जीवन निर्माणकारी शिक्षा। यह शिक्षण किताबी अध्ययन से प्राप्त नहीं किया जा सकता, इसके लिए सत्संग और स्वाध्याय आवश्यक है। प्राचार्य श्री ने स्वाध्याय के तीन अर्थ किये। पहला ‘स्वस्य अध्ययनं' अर्थात् अपने आपका अध्ययन । दूसरा 'स्वेन अथ्ययनं' अर्थात् अपने द्वारा अपना अध्ययन । तीसरा 'सु', 'पाङ्' और 'अध्याय' अर्थात् अच्छे ज्ञान का मर्यादापूर्वक अध्ययन-ग्रहण। इसी संदर्भ में प्राचार्य श्री ने कहा 'शास्त्र ही मनुष्य का वास्तविक नयन है।' और 'हमें शस्त्रधारी नहीं शास्त्रधारी सैनिकों की आवश्यकता है।' इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्राचार्य श्री ने राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू आदि प्रदेशों की उग्र और लम्बी पदयात्राएँ की और स्थान-स्थान पर सैंकड़ों की संख्या में स्वाध्यायी सैनिक बनाये जो अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म से जुड़े, हजारों की संख्या में प्रतिदिन १५ मिनट स्वाध्याय-ध्यान करने वाले भाई-बहिन, आबाल वृद्ध तैयार किये। स्वाध्याय को अभियान का, मिशन का रूप दिया। आचार्य श्री प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रबल पक्षधर होते हुए भी आधुनिक भाव-बोध और वैज्ञानिक चिन्तन से सम्पृक्त थे । जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए वे शास्त्रीय अध्ययन के साथ-साथ-साथ समाजशास्त्रीय और लोकधर्मी परम्पराओं के अध्ययन को आवश्यक मानते थे। उनके द्वारा प्रेरित-संस्थापित सिद्धान्त शिक्षण संस्थानों, स्वाध्याय विद्यापीठों और ज्ञान-भण्डारों में प्राचीन-अाधुनिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन, मनन, चिन्तन, शोध के लिए सभी वातायन खुले हैं। . स्वाध्याय के साथ आचार्य श्री ने समभाव की साधना सामायिक को जोड़ा। “सामायिक" की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा—'सम' और 'पाय' से सामायिक रूप बनता है जिसका अर्थ है समता की प्राय । 'समय' का अर्थ सम्यक् आचार या प्रात्म-स्वरूप है। मर्यादानुसार चलना अथवा प्रात्म-स्वभाव में आना भी सामायिक है। प्राचार्य श्री ने प्रतिदिन एक घंटा सामायिक करने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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