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. [ कर्म सिद्धान्त
को यों भी अभिव्यक्त किया जा सकता है कि-ग्रहण और फल ! कर्म-संग्रहण में जीव परतन्त्र नहीं है और उस कर्म का फल भोगने में वह स्वतन्त्र नहीं है, कल्पना कीजिये-एक व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ जाता है, चढ़ने में वह अवश्य स्वतन्त्र है । वह स्वेच्छा से वृक्ष पर चढ़ता है । प्रमाद के कारण वह वृक्ष से गिर जाय ! गिरने में वह स्वतन्त्र नहीं है । इच्छा से वह गिरना नहीं चाहता है तथापि वह गिर पड़ता है। निष्कर्ष यह है कि वह गिरने में परतन्त्र है।
वस्तुतः कर्मशास्त्र के गुरु गम्भीर रहस्यों का परिज्ञान होना अतीव आवश्यक है । रहस्यों के परिबोध के बिना आध्यात्मिक-चेतना का विकास-पथ प्रशस्त नहीं हो सकता । इसलिये कर्मशास्त्र की जितनी भी गहराइयाँ हैं, उनमें उतरकर उनके सूक्ष्म रहस्यों को पकड़ने का प्रयत्न किया जाय । उद्घाटित करने की दिशा में अग्रसर होने का उपक्रम करना होगा।
हमारी जो आध्यात्मिक चेतना है, उसका सारा का सारा विकास क्रम मोह के विलय पर आधारित है। मोह का आवेग जितना प्रबल होता जाता है, मूर्छा भी प्रबल और सघन हो जाती है, परिणामतः हमारा प्राचार व विचार पक्ष भी विकृत एवं निर्बल होता चला जाता है। उसके जीवन-प्राङ्गण में विपर्यय ही विपर्यय का चक्र घूमता है । जब मोह के आवेग की तीव्रता में मन्दता आती है, तब स्पष्ट है कि उसकी आध्यात्मिक चेतना का विकास-क्रम भी बढ़ता जाता है । उसको भेद-विज्ञान की उपलब्धि होती है । मैं इस क्षयमाण शरीर से भिन्न हूँ, मैं स्वयं शरीर रूप नहीं हूँ। इस स्वर्णिम समय में अन्तर्दृष्टि उद्घाटित होती है। वह दिव्य दृष्टि के द्वारा अपने आप में विद्यमान परमात्म-तत्त्व से साक्षात्कार करता है।
___ इस प्रकार प्रस्तुत निबन्ध की परिधि को संलक्ष्य में रखकर जैन कर्मसिद्धान्त के सम्बन्ध में शोध-प्रधान आयामों को उद्घाटित करने की दिशा में विनम्र उपक्रम किया गया है । यह एक ध्रुव-सत्य है कि जैन-साहित्य के अगाधअपार महासागर में कर्म-वाद-विषयक बहुआयामी सन्दर्भो की रत्नराशि जगमगा रही है। जिससे जैन-वाङमय का विश्व-साहित्य में शिरसि-शेखरायमाण स्थान है।
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