________________
कर्म के भेद-प्रभ
[ ४७
करते हैं, अर्थात वे घड़े कलश रूप होते हैं अतः वे पूजा योग्य हैं। और कितने ही घड़े ऐसे होते हैं, जिनमें निन्दनीय पदार्थ रखे जाते हैं और इस कारण वे निम्न माने जाते हैं। इसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से जीव उच्च और नीच कुल में उत्पन्न होता है।' इस कर्म की अल्पतम स्थिति आठ महूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटि सागरोपम की बताई गई है।
८. अन्तराय कर्म :
जिस कर्म के प्रभाव से एक बार अथवा अनेक बार सामर्थ्य सम्प्राप्त करने और भोगने में अवरोध उपस्थित होता है, वह अन्तराय कर्म कहलाता है । इस कर्म की उत्तर-प्रकृतियाँ पाँच प्रकार की हैं-४
१-दान अन्तराय कर्म २-लाभ अन्तरायकर्म ३-भोग अन्तराय कर्म ४-उपभोग अन्तरायकर्म
५-वीर्य अन्तरायकर्म यह कर्म दो प्रकार का है-१-प्रत्युत्पन्न विनाशी अन्तरायकर्म २-पिहित आगामिपथ अन्तरायकर्म ।५ इसकी न्यूनतम स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की बताई गई है।
अन्तराय कर्म राजा के भण्डारी के सदृश है। राजा का भण्डारी राजा के द्वारा आदेश दिये जाने पर दान देने में विघ्न डालता है, आनाकानी करता है, उसी प्रकार प्रस्तुत कर्म भी दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्नबाधाएँ उपस्थित कर देता है ।
इस प्रकार कर्म परमाणु कार्य-भेद की विवक्षा के अनुसार आठ विभागों में बँट जाते हैं। कर्म की प्रधान अवस्थाएँ दो हैं - बन्ध और उदय । इस तथ्य
१. जह कुंभारो भंडाइं कुणइ पुज्जेयराई लोयस्स । इय गोयं कुणइ जियं, लोए पुज्जेयरानत्थं ।।
स्थानांग सूत्र-२/४/१०५ टीका २. उत्तराध्ययन सूत्र-अ० ३३/२३ ॥ ३. पंचाध्यायी २/१००७ ।। ४ दाणे, लाभे य भोगे य, उवभोगे वीरिए तहा । पंचविहमंतरायं समासेण वियाहियं ॥
उत्तराध्ययन सूत्र-३३/१५ ५. स्थानांग सूत्र २/४/१०५ ६. उत्तराध्ययन सूत्र-अध्ययन-३३ गाथा-१६ ७. स्थानांगी श्री कलममोगरा
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org