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कर्म-विमर्श
0 श्री भगवती मुनि 'निर्मल'
कर्म सिद्धान्त भारत के आस्तिक दर्शनों का नवनीत है। उसकी आधारशिला है । कर्म की नींव पर ही उसका भव्य महल खड़ा हुआ है । कर्म के स्वरूप निर्णय में विचारों की, मतों की विभिन्नता होगी पर अध्यात्म सिद्धि कर्म मुक्ति के केन्द्र स्थान पर फलित होती है, इसमें दो मत नहीं हो सकते । प्रत्येक दर्शन ने किसी न किसी रूप में कर्म की मीमांसा को है। चूंकि जगत् की विभक्ति, विचित्रता व साधनों की समानता होने पर भी फल के तारतम्य या अन्तर को सहेतुक माना है।
लौकिक भाषा में कर्म कर्त्तव्य है। कारक की परिभाषा से कर्ता का व्याप्य कर्म है। वेदान्ती अविद्या, बौद्ध वासना, सांख्य क्लेश और न्याय वैशेषिक अदृष्ट तथा ईसा, मोहम्मद, और मूसा शैतान एवं जैन कर्म कहते हैं । कई दर्शन कर्म का सामान्य निर्देशन करते हैं तो कई उसके विभिन्न पहलुओं पर सामान्य दृष्टिक्षेप कर आगे बढ़ जाते हैं । न्याय दर्शनानुसार अदृष्ट आत्मा का गुण है। अच्छे और बुरे कर्मों का आत्मा पर संस्कार जिसके द्वारा पड़ता है वह अदृष्ट कहलाता है । सद्-असद् प्रवृत्ति से प्रकम्पित अात्म प्रदेश द्वारा पुद्गल स्कन्ध को अपनी ओर आकर्षित करने में कुछ पुद्गल स्कन्ध तो विसर्जित हो जाते हैं तो शेष चिपक जाते हैं। चिपकने वाले पुद्गल स्कन्धों का नाम ही कर्म है । जब तक कर्म का फल नहीं मिलेगा, तब तक कर्म आत्मा के साथ ही रहता है । उसका फल ईश्वर के माध्यम से मिलता है। यथाईश्वरः कारणं पुरुष कर्माफलस्य दर्शनात्
-न्यायसूत्र ४/१/ चकि यदि ईश्वर कर्म फल की व्यवस्था न करे तो कर्म फल निष्फल हो जायेंगे । सांख्य सूत्र के मतानुसार कर्म तो प्रकृति का विकार है । यथाअन्तःकरण धर्मत्वं धर्मादीनाम्
-सांख्य सूत्र ५/२५ सुन्दर व असुन्दर प्रवृत्तियों का प्रकृति पर संस्कार पड़ता है। उस प्रकृतिगत संस्कारों से ही कर्मों के फल मिलते हैं । जैन दर्शन ने कर्म को स्वतन्त्र
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