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________________ कर्म के भेद-प्रभेद ] [ ४३ नाम अकाषाय भी है।' अकषाय का अर्थ कषाय का अभाव नहीं, किन्तु ईसत् कषाय, अल्प कषाय है । इसके नव प्रकार हैं१-हास्य ५-शोक २-रति ६-जुगुप्सा ३-अरति ७-स्त्रीवेद ४-भय ८-पुरुषवेद -नपुसकवेद इस प्रकार चारित्र मोहनीय की इन पच्चीस प्रकतियों में से संज्वलनकषाय चतुष्क और नोकषाय ये देशघाती हैं, और अवशेष जो बारह प्रकृतियाँ हैं वे सर्वघाती कहलाती हैं। इस कर्म की जघन्य-स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटि सागरोपम की है। 3 ५. आयुष्य कर्म : आयुष्यकर्म के प्रभाव से प्राणी जीवित रहता है और इस का क्षय होने पर मृत्यु का वरण करता है। यह जीवन अवधि का नियामक तत्त्व है। इसकी परितुलना कारागृह से की गई है। जिस प्रकार न्यायाधीश अपराधी के अपराध को संलक्ष्य में रखकर उसे नियतकाल तक कारागृह में डाल देता है, जब तक अवधि पूर्ण नहीं होती है तब तक वह कारागृह से विमुक्त नहीं हो सकता। उसी प्रकार आयुष्य-कर्म के कारण ही सांसारिक जीव रस, देह-पिण्ड से मुक्त नहीं हो सकता। इस कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ चार हैं-६ । १-नरकायु ३-मनुष्यायु २-तिर्यञ्चायु ४-देवायु। । १. तत्त्वार्थराजवार्तिक-८/8-१० ॥ २. स्थानांग सूत्र-टीका-२/४/१०५ ।। ३. (क) उत्तराध्ययन सूत्र-३३/२१ (ख) सप्ततिर्मोहनीयस्य । ४. प्रज्ञापना सूत्र २३/१ ॥ ५. (क) जीवस्य अवट्ठाणं करेदि प्राऊ हडिव्व परं । गोम्मटसार कर्मकाण्ड-११ (ख) सुरनरतिरिनरयाऊ हडिसरिसं प्रथम कर्म ग्रन्थ-२३ ॥ ६. नेरइयतिरिक्खाउं मणुस्साउं तहेव य । देवाउयं चउत्थं तु आउकम्मं चउव्विहं ।। उत्तराध्नयन सूत्र ३३/१२ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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