________________
४४ ]
[ कर्म सिद्धान्त आयुष्क कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम वर्ष की है।'
६. नाम कर्म :
जिस कर्म के कारण प्रात्मा गति, जाति, शरीर आदि पर्यायों के अनुभव करने के लिये बाध्य होती है वह नाम कर्म है। इस कर्म की तुलना चित्रकार से की गई है। जिस प्रकार एक चित्रकार अपनी कमनीय कल्पना में मानव, पशु-पक्षी आदि विविध प्रकारों के चित्र चित्रित कर देता है, उसी प्रकार नामकर्म भी नारक-तिर्यंच, मनूष्य और देव के शरीर आदि की संरचना करता है। तात्पर्य यह है कि यह कर्म शरीर, इन्द्रिय, प्राकृति, यश-अपयश आदि का निर्माण करता है ।
नामकर्म के प्रमुख प्रकार दो हैं-शुभ और अशुभ । अशुभ नामकर्म पापरूप हैं और शुभ नामकर्म पुण्यरूप हैं।
नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों की संख्या के सम्बन्ध में अनेक विचारधाराएँ हैं । मुख्य रूप से नामकर्म की प्रकृतियों का उल्लेख इस प्रकार से मिलता है-नामकर्म की बयालीस उत्तर प्रकृतियाँ भी होती हैं । जैन आगम-साहित्य में व अन्य ग्रन्थों में नामकर्म के तिरानवे भेदों का भी उल्लेख प्राप्त होता है । ६
१: उत्तराध्ययन सूत्र-३३/२२ । २. नामयति-गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम ।
. प्रज्ञापना सूत्र २३/१/२८८ टीका ३. जह चित्तयदो निउणो अणेगरुवाइं कुणइ रूवाइं ।
सोहणमसोहणाई चोक्खमचोक्खेहिं वण्णेहिं ।। तह नामपि हु कम्मं अणेगरूवाइं कुणइ जीवस्स ।। सोहणमसोहणाई इट्ठारिणट्ठाई लोयस्स ।।
स्थानांग सूत्र-२/४ ।। १०५ टीका ४. नाम कम्मं तु दुविहं, सुहमसुहं च प्राहियं ।।
उत्तराध्ययन ३३/१३ ॥ ५. (क) प्रज्ञापना सूत्र-२३/२-२६३
(ख) तत्त्वार्थ सूत्र-८/१२ ॥ (ग) नामकम्मे बायालीसविहे पण्णत्ते !
___ समवायांग सूत्र-समवाय-४२ ६. (क) प्रज्ञापना सूत्र-२३/२/२६३ ॥
(ख) गोम्मटसार-कर्मकाण्ड-२२ ॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org