________________
४२ ]
[ कर्म सिद्धान्त इस प्रकार कषायमोहनीय के सोलह भेद हुए। इसके उदय से सांसारिक प्राणियों में क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं। कषाय शब्द कष और पाय इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। कष का अर्थ है-संसार और आय का अर्थ हैलाभ । तात्पर्य यह है कि जिससे संसार अर्थात् भव-भ्रमण की अभिवृद्धि होती है वह कषाय कहलाता है।'
अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उदय से आत्मा अनन्तकाल-पर्यन्त संसार में परिभ्रमणशील रहता है, यह कषाय सम्यक्त्व का प्रतिघात करता है। अप्रत्याख्यानावरणीय चतुष्क के प्रभाव से श्रावक धर्म अर्थात् देश-विरति की प्राप्ति नहीं होती है । प्रत्याख्यानावरण चतुष्क के प्रभाव से श्रमण धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती।५ संज्वलन कषाय के उदय से यथाख्यात चारित्र अर्थात् उत्कृष्ट चारित्र धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती ।।
अनन्तानुबन्धी चतुष्क की स्थिति यावज्जीवन की है। अप्रत्याख्यानी चतुष्क की एक वर्ष की है, प्रत्याख्यानी कषाय की चार मास की है और संज्वलन कषाय को स्थिति एक पक्ष की है ।
नोकषाय मोहनीय-जिन का उदय कषायों के साथ होता रहता है, अथवा जो कषायों को उत्तेजित करते हैं, वे नोकषाय कहलाते हैं। इसका दूसरा १. कम्म कसो भवो वा, कसमातो सिं कसाया वो । _कसमाययंति व जतो, गमयंति कसं कसायत्ति ।।
विशेषावश्यक भाष्य गाथा-१२२७ ।। २. तत्त्वार्थ सूत्र भाष्य-अ० ८ सूत्र-१० ।। ३. अप्रत्याख्यान कषायोदयाद्विरतिर्नभवति ।
तत्त्वार्थ भाष्य-८/१० ।। ४. तत्त्वार्थ सूत्र-८/१० ।। भाष्य । ५. तत्त्वार्थ सूत्र ८/१० भाष्य
मटसार, जीवकाण्ड-२८३ ।। (ख) संज्वलनकषायोदयाद्यथाख्यातचारित्रलाभो न भवति
__ तत्त्वार्थ सूत्र ८/१० भाष्य ७. (क) जाजीववरिसचउमासपक्खगानरयतिरयनर अमरा । सम्माणुसव्व विरई अहखायचरित्तधायकरा ।। .
-प्रथम कर्मग्रन्थ-गाथा १८ (ख) अंतो मुहत्तपक्खं छम्मासं संरवणंत भवं । संजलणमादियाणं वासणकालो हु बोद्धब्बो ।।
गोम्मटसार कर्म काण्ड । ८. कषायसहवर्तित्त्वात्, कषायप्रेरणादपि । ..
हास्यादिनवकस्योक्ता, नोकषायकषायता ।।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org