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[ कर्म सिद्धान्त
इस कर्म के प्रभाव से ज्ञानोपयोग आच्छादित रहता है। आत्मा का जो ज्योतिमेय स्वभाव है, वह इस कर्म से आवृत्त हो जाता है। प्रस्तुत कर्म की परितुलना कपड़े की पट्टी से की गई है। जिस प्रकार नेत्रों पर कपड़े की पट्टी लगाने पर नेत्र-ज्योति या नेत्र ज्ञान अवरुद्ध हो जाता है उसी प्रकार इस ज्ञानावरण-कर्म के कारण आत्मा की समस्त वस्तुओं को यथार्थ रूप से जानने की ज्ञान-शक्ति आच्छन्न हो जाती है ।' ज्ञानावरण कर्म की उत्तर-प्रकृत्तियाँ पाँच प्रकार की हैं२
१-मतिज्ञानावरण
३-अवधिज्ञानावरण २-श्रुतज्ञानावरण
४-मनः पर्याय ज्ञानावरण ५-केवल ज्ञानावरण ।
इस कर्म की उत्तर प्रकृतियों का वर्गीकरण देशघाती और सर्वघाती इन दो भेदों के रूप में भी हुआ है । जो प्रकृति-स्वघात्य ज्ञानगुण का पूर्णरूपेण घात करतो है वह सर्वघाती है और जो ज्ञानगुण का आंशिक रूप से घांत करती है वह प्रकृति देश-घाती कहलाती है। देश-घाती प्रकृतियाँ चार हैं, वे ये हैं-मति ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मनःपर्याय ज्ञानावरण और सर्वघाती प्रकृति केवलज्ञानावरणीय है। सर्वघाती प्रकृति का अभिप्राय यह है कि केवलज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को सर्वथा रूप से आच्छादित नहीं करता है। परन्तु यह केवल "केवलज्ञान" का ही सर्वथा निरोध करता है। निगोद-अवस्था में भी जीवों के उत्कट-ज्ञानावरणीय कर्म-उदित रहता है । जिस प्रकार दीप्तिमान्-सूर्य घनघोर घटाओं से आच्छादित होने पर भी उसका प्रखरप्रकाश प्रांशिक रूप से अनावृत्त रहता है। जिसके कारण ही दिन और रात का भेद भी ज्ञात हो जाता है । उसी प्रकार ज्ञान का जो अनंतवां भाग है वह भी
१. (क) सरउग्गयससिनिम्मलयरस्स जीवस्स छायणं जमिहं । पाणावरणं कम्मं पडोवमं होइ एवं तु ।।
स्थानांग टीका-२/४/१०५।। (ख) प्रथम कर्मग्रन्थ-गाथा-६ २. (क) नाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिरिणबोहियं । प्रोहिनाणं चं तइयं, मणनाणं च केवलं ॥
उत्तराध्ययन सूत्र-३३/४ ॥ (ख) तत्त्वार्थ सूत्र-८/६-७ ॥ (ग) प्रज्ञापना सूत्र-२३/२
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