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कर्म के भेद-प्रभेद ]
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इन आठ कर्म प्रवृत्तियों के संक्षिप्त रूप से दो अवान्तर भेद हैं-चार घाती कर्म' और चार अघाती कर्म । घातीकर्म
अघातीकर्म १-ज्ञानावरणीय
१-वेदनीय २-दर्शनावरणीय
२-आयु ३-मोहनीय
३-नाम ४-अन्तराय
४-गोत्र जो कर्म प्रात्मा के स्वाभाविक गुणों को आच्छादित करते हैं, उन्हें विकसित नहीं होने देते हैं, वे कर्म घाती कर्म हैं। इन घाती कर्मों की अनुभाग-शक्ति का असर आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुणों पर होता है। जिससे आत्मिक-गुणों का विकास अवरुद्ध हो जाता है । घाती कर्म आत्मा के मुख्य गुण अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त-वीर्य गुणों का घात करता है। जिससे आत्मा अपना विकास नहीं कर पाती है। जो अघाती कर्म आत्मा के निज-गुणों का प्रतिघात तो नहीं करता है, किन्तु आत्मा के जो प्रतिजीवी गुण हैं उनका घात करता है अतः वह अघाती कर्म है। इन अघाती-कर्मों की अनुभाग शक्ति का असर जीव के गुणों पर तो नहीं होता, किन्तु अघाती कर्मों के उदय से आत्मा का पौद्गलिक-द्रव्यों से सम्बन्ध जुड़ जाता है। जिससे आत्मा 'अमूर्तोऽपि मूर्त इव' प्रतीत होती है। यही कारण है कि अघाती-कर्म के कारण आत्मा शरीर के कारागृह में आबद्ध रहती है जिससे आत्मा के अव्याबाध सुख, अटल अवगाहना, अमूर्तिकत्व और अगुरुलघु गुण प्रकट नहीं होते हैं। १. ज्ञानावरणीय कर्म :
जीव का लक्षण उपयोग है । उपयोग शब्द ज्ञान और दर्शन इन दोनों का संग्राहक है ।४ ज्ञान साकारोपयोग है और दर्शन निराकारोपयोग है।५ १. (क) गोम्मटसार कर्मकाण्ड ६ ॥
(ख) पंचाध्यायी २/९६८ ॥ २. (क) पंचाध्यायी २/६६६ ।।
(ख) गोम्मटसार-कर्मकाण्ड-६ ॥ (क) उवप्रोगलक्खणेणं जीवे-भगवती सूत्र १३/४/४/८० ॥ (ख) उवप्रोगलक्खणे जीवे -भगवती सूत्र २/१० ।। (ग) गुणो उवप्रोगगुणे -स्थानांग सूत्र ५/३/५३० ॥ (घ) जीवो उवप्रोगलक्खणो–उत्तराध्ययन सूत्र २८/१० ।। (ङ) द्रव्यसंग्रह गाथा-१
(च) तत्त्वार्थ सूत्र-२/८ ।। ४. जीवो उवयोगमत्रो, उवयोगो णाणदंसणो होई ।।
नियमसार-१०॥ ५. तत्त्वार्थ सूत्र भाष्य २/६ ।।
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