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________________ कर्म के भेद-प्रभेद 0 श्री रमेश मुनि शास्त्री कर्म के मुख्य भेद दो हैं-द्रव्य कर्म और भाव कर्म । कर्म और प्रवृत्ति के कार्य और कारण भाव को संलक्ष्य में लेकर पुद्गल परमाणुओं के पिण्ड रूप कर्म को द्रव्य-कर्म कहा है और राग-द्वेष रूप प्रवत्तियों को भाव कर्म कहा जाता है । जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष की परम्परा अनादि काल से चलती आ रही है, ठीक उसी प्रकार द्रव्यकर्म से भावकर्म और भावकर्म से द्रव्यकर्म की परम्परा अर्थात् सिलसिला भी अनादि है। इस सन्दर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि आत्मा से सम्बन्ध जो कार्मणवर्गणा है, पुद्गल है-वह द्रव्यकर्म है। द्रव्यकर्म युक्त आत्मा की जो प्रवृत्ति है, 'रागद्वेषात्मक जो भाव है वह भावकर्म है। ५-पायु द्रव्यकर्म की मूलभूत प्रवृत्तियाँ पाठ हैं। जो सांसारिक-आत्मा को अनुकूल और प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं १-ज्ञानावरणीय २-दर्शनावरणीय ६-नाम ३-वेदनीय ७-गोत्र ४-मोहनीय -अन्तराय १. (क) नाणसावरणिज्जं दंसणावरणं तथा । । वेयणिज्जं तहा मोहं आउकम्मं तहेव य ॥ नामकम्मं च गोयं च, अन्तरायं तहेव य । एवमेयाइं कम्माइं, अट्ठव उ समासपो ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३३/२-३ ॥ (ख) स्थानाङ्ग सूत्र ८/३/५६६ ॥ (ग) भगवती सूत्र शतक-६ उद्देशाह (घ) प्रज्ञापना सूत्र २३/१ ।।। (ङ) प्रथम कर्म ग्रन्थ गाथा-३ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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