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[ कम सिद्धान्त
व्यक्ति को एक समर्थ कर्ता का दर्जा देते हैं, और यह मान कर चलते हैं कि वह चाहता तो जो उसने किया वह, वह नहीं भी कर सकता था, वस्तुतः उसे वैसा नहीं करना चाहिए था, उसे वैसा नहीं चाहना चाहिए था। हम मान लेते हैं, कि जो उसने किया उसका आरम्भ एक निश्चित इच्छा अथवा प्रेरणा थी, उसके परे सोचने की कोई आवश्यकता नहीं है । और इतना उसके कर्त्त त्व को निश्चित करने के लिए पर्याप्त है, और निश्चित नियमों के आधारों पर हम व्यक्ति को उसके किए लिए उपयुक्त दण्ड का विधान करते हैं।
दूसरी ओर जब हम कर्म को 'समझना' चाहते हैं, जब सम्बन्धित कर्मफल की संगति के अपवाद सामने आते हैं, तब हम वैयक्तिक प्रणाली को छोड़कर समष्टिमूलक प्रणाली को अपनाते हैं। कर्म को समझने के लिए हम स्वभाव, आदत, तात्कालिक परिस्थिति, व्यक्ति का सांस्कृतिक परिवेश तथा अनेक दूसरे पहलुओं पर सोचते हैं, जिनका पहले उल्लेख किया जा चुका है। हमें यह युक्तियुक्त नहीं लगता कि जो न किया हो उसका हमें फल मिले तथा जो किया हो उसका फल नहीं मिले। परिणामस्वरूप हमने जनम-जन्मान्तर की कल्पना की, अदृश तथा अपूर्व की कल्पना को । हमें लगा कि किसी व्यवस्था के बिना तो जीवन की कल्पना ही सम्भव नहीं है, वह व्यवस्था मूलतः न्याय, औचित्य, सत्य की रक्षा करती है । मानव स्वयं, (अपनी परिसीमा के कारण) किसी व्यवस्था को स्थापित करने, तथा उसकी रक्षा करने में असमर्थ रहते हैं तो यह मूल व्यवस्था सक्रिय होती है तथा दैवी दण्ड विधान समाज की स्थिति तथा स्थिरता की रक्षा करता है। परन्तु यहां फिर एक और दिलचस्प बिन्दु की ओर ध्यान जाता है । मानवों के समाज में जो अव्यवस्था है, कर्मफल की जहां असंगति है, वहाँ वस्तुतः दैवी विधान ही सक्रिय है। हमें असंगति इसलिए दिखलाई पड़ती है कि हम पूरी शृखला को नहीं देख पाते, जो पूरी शृखला को देख सकता, जो जन्म-जन्मान्तरों में फैले जीवन का सारा गणित कर सकता, वह यह देख लेता कि मूलतः व्यक्ति ही अपने सारे भूत, वर्तमान तथा भविष्य के लिए उत्तरदायी है । एक जन्म में जो असंगत लगता है, एक से अधिक जन्मों को देखने पर, संगति की अदृष्ट कड़ियाँ स्पष्ट हो जाती हैं।
परन्तु बहुत लोग जन्म-जन्मान्तर तथा अदृश को बीच में लाना पसन्द नहीं करेंगे। शायद वे कहें कि मानवीय सम्बन्धों में, मानव के क्रिया कलाप तथा उसके परिणामों के बीच किसी संगति को न तो पाया जा सकता है, और न स्थापित किया जा सकता है। फलतः कर्मफल की असंगति कोई समस्या नहीं है परन्तु ऐसी अवस्था में कोई भी समस्या नहीं होगी। परन्तु समस्याएँ तो हैं,
अतः इस दृष्टि को छोड़ना होगा। तब उस अवस्था में कर्मफल की असंगति को • कैसे समझा जाय ? 'क' की पत्नी तथा बच्चे हत्या के लिए उत्तरदायी नहीं हैं, तो वे उसका दण्ड क्यों भोगें ? शायद यहाँ कहा जाय कि यदि वे पत्नी और
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