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"जैसी करनी वैसी भरनी" पर एक टिप्पणी ]
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बच्चे नहीं होते तो उन्हें दण्ड नहीं भोगना पड़ता परन्तु उनका पत्नी तथा बच्चे होना क्या उनके अपने संकल्प का परिणाम है ? शायद पत्नी के लिए यह कहा जा सकता हो, क्या बच्चों के लिए भी यह कहा जा सकता है ? शायद यहां यह कहा जाय कि जिस समाज में 'क' सदस्य था उसकी संरचना में ही ये सम्बन्ध अन्तनिहित हैं, तथा इन सम्बन्धों का एक विशेष प्रकार का होना, समाज के सदस्यों के लिए विशिष्ट प्रकार के परिणाम लाता है। यदि ऐसे समाज की कल्पना करें जिसमें 'क' को कारावास मिलने पर पत्नी तथा बच्चों की देखभाल समाज के अन्य सदस्यों पर, अथवा व्यवस्था पर आश्रित होती, तो वहां, स्पष्टतया इनके लिए भिन्न परिणाम होते। परन्तु हमारे समाज में, अथवा ऐसे हो किसी समाज में, जहां 'क' के किए फल अन्यों को भी भुगतना पड़ता है, वहां शायद मान्यता यह है कि बीवी-बच्चों का मोह 'क' को उस अविवेकपूर्ण कृत्य से बचा लेता। दूसरों को इससे सबक लेना चाहिए, और यदि उन्हें अपने बीवी बच्चों से मोह है, तो उन्हें ऐसे अविवेकपूर्ण कृत्यों से बचना चाहिए । अन्य शब्दों में, यद्यपि बीवी बच्चों ने ऐसा कुछ नहीं किया जो उन्हें 'क' के किए का फल भुगतना पड़े, उनका एक विशेष सामाजिक संरचना का अंग होना ही उनकी विपत्ति का कारण है। जिस प्रकार दैवी अथवा पृच्छन्न व्यवस्था को न जानने पर कर्मफल की संगति हमें अप्राप्य होती है, उसी प्रकार समाज की संरचना को न समझने के कारण हम उसे नहीं देख पाते, दोनों ही अवस्थाओं में कर्म तथा फल का कोई सीधा सम्बन्ध हो, अथवा वे किसी एक सरल शृखला का अंग हों, यह आवश्यक नहीं है । हमने यह देखा कि समाज की ऐसी संरचना की कल्पना सम्भव है, जिसमें यह सम्बन्ध अधिक निकट का हो। इस सम्बन्ध में यह ध्यान देने योग्य है कि जिन विचारकों ने न्याय तथा दण्ड की उस व्यवस्था की कल्पना की है जिसमें अपराधी का बहिष्कार नहीं किया जाता, अपितु उसके साथ लगभग उसी प्रकार का व्यवहार होता है जैसा रुग्ण व्यक्तियों के साथ । वे वस्तुतः ऐसी सामाजिक संरचना को प्रस्तुत करते हैं जिसमें कर्मफल को संगति अधिक तर्क संगत रूप में प्राप्त होती है।
इस विवेचन में जिन दो दृष्टियों की बात की गई है, वे महाभारत के मनीषियों के लिए अलग-अलग नहीं थीं। शान्तिपर्व में इस बात पर बड़ा बल दिया गया है कि राजा तथा राज्य इतने घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित हैं कि सारी सामाजिक व्यवस्था इस सम्बन्ध का प्रतिबिम्ब है। राजा के कर्तव्यनिर्वाह के अभाव में न केवल सारी व्यवस्था हो छिन्न-भिन्न हो जाती है, अपितु प्राकृतिक घटनाएँ भी अनियमित हो जाती हैं। वर्षा, ऋतुएँ मानव जीवन में घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । जीवन कल्याणमय हो तथा समृद्ध दिशा ले इसके साथ ऋतुओं का सहयोग अथवा उनकी अनुकूलता भी आवश्यक है । ऐसा लगता है कि समस्त चराचर जगत् की एक अखण्ड कल्पना तथा उसके आधार में एक न्यायिक
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