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________________ " जैसी करनी वैसी भरनी" पर एक टिप्पणी ] [ ३०१ । जाता है । यह समझ हमें एक दूसरे सिलसिले की ओर ले जाती है, और हम इच्छा को स्वभाव, उद्दीपन आदि के परिणाम अथवा कार्य के रूप में देखने लगते हैं । यदि और ध्यान से विचार करें, तो व्यक्ति जिस समाज में है, जिस युग तथा देश में है, तथा जिस सांस्कृतिक प्रवेश में है, उससे उसकी इच्छा के विषय में समझ बढ़ती है इस प्रकार के सन्दर्भ उस अवस्था में महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, जब हम इच्छापूर्ति तथा उसके साधन पर कर्त्ता के विचार-विमर्श तथा अन्ततः उसके निश्चय पर ध्यान देते हैं । इस प्रकार कर्म का एक प्रान्तरिक इतिहास भी होता है, जो परोक्ष रूप में जाना, समझा जा सकता है । जब उद्यम के विषय में विचार करते हैं तो साधारणतया कर्त्ता की शारीरिक गति तथा मुद्रा की ओर ध्यान जाता है । परन्तु उद्यम की आवश्यकता तथा पर्याप्त अवस्थानों पर विचार करें, तो पता चलेगा कि बहुत कुछ हम मान कर चलते हैं, तो बहुत कुछ ऐसा भी है जिसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता परन्तु जिसके बिना उद्यम सम्भव नहीं हो सकता । इन अवस्थाओं में गुरुत्वाकर्षण, देश, काल, शरीर की स्वस्थास्वस्थ अवस्था, शरीर की परिपक्वता, प्रशिक्षण ( औपचारिक, अनौपचारिक ), अभ्यास, सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवधान अथवा सुविधाएँ, जैसी अनेक बातें आती हैं । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उद्यम बिना एक वृहत् तथा व्यापक सन्दर्भ का अंग बने सम्भव नहीं हो सकता । और जब परिणाम पर दृष्टिपात करते हैं, तो पता चलता है कि परिणाम को नाम दिया जाना उस व्यक्ति तथा दृष्टि पर आश्रित है जिससे तथा जिसके द्वारा वह लक्षित हो । इस रूप में परिणाम कोई सरल एकिक स्थिति नहीं है, अपितु एक बहु आयामों से युक्त स्थिति है जिसे उसके किसी एक या अनेक आयामों के आधार पर नाम दिया जा सकता है, और जैसा पाठक लक्ष्य करेंगे नाम देना एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है तथा उसमें हमारे मूल्य एवं आदर्शों का समावेश होता है । इस अत्यन्त संक्षिप्त विवेचन से यह लगता है कि कर्म को एक सरल शृंखला के रूप में देखना, अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों की अवहेलना होगा । व्यक्ति के दायित्व, कर्म फल के रूप में उसे जो भोगना पड़ता है, व्यक्ति की परिवेश में परिवर्तन लाने की सामर्थ्य की सीमा - इन सभी के विषय में जो अनेक विवाद हैं, कदाचित् उनकी तह में कर्म के सम्बन्ध में उसे एक सरल श्रृंखला के रूप में देखना, तथा उसे एक पूरे तन्त्र के अंग के रूप में देखना - ये दो दृष्टियाँ विद्यमान हैं। दोनों का सम्बन्ध दो भिन्न प्रकार की आवश्यकताओं से जुड़ा लगता है । जब हम कर्म को एक सरल श्रृंखला के रूप में देखते हैं तो हमारा लक्ष्य व्यक्ति के दायित्व को निश्चित करना होता है, और समाज में दण्ड या न्याय-व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक प्रतीत होता है । यहां हमारे सामने एक व्यावहारिक समस्या होती है, और हमें एक निर्णय लेना होता हैमुख्य रूप में हमारे सामने प्रश्न होता है 'किसने किया ? ' इस सन्दर्भ में हम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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