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[कर्म सिद्धान्त
परमात्मा का ही अंशभूत जीव (गीता १५.७) अनादि पूर्व कर्माजित जड़ देह तथा इन्द्रियों के बंधनों से बद्ध हो जाता है, तब इस बद्धावस्था से उसको मुक्त करने के लिये (अर्थात् मोक्षानुकूल) कर्म करने की प्रवृत्ति देहेन्द्रियों में होने लगती है और इसीको व्यावहारिक दृष्टि से 'आत्मा की स्वतन्त्र प्रवृत्ति' कहते हैं । व्यावहारिक दृष्टि से कहने का कारण यह है कि शुद्ध मुक्तावस्था में या तात्त्विक दृष्टि से आत्मा इच्छारहित तथा अकर्ता है और सब कर्तृत्व केवल प्रकृति का है (गीता १३.२६) परन्तु वेदान्ती लोग सांख्यमत की भांति यह नहीं मानते कि प्रकृति ही स्वयं मोक्षानुकल कर्म किया करती है, क्योंकि ऐसा मान लेने से यह कहना पड़ेगा कि जड़ प्रकृति अपने अंधेपन से अज्ञानियों को भी मुक्त नहीं कर सकती है और यह भी नहीं कहा जा सकता कि जो आत्मा मूल ही में अकर्ता है, वह स्वतन्त्र रीति से-अर्थात् बिना किसी निमित्त के अपने नैसर्गिक गुणों से ही प्रवर्तक हो जाता है। इसलिए आत्म-स्वातन्त्र्य के उक्त सिद्धान्त को वेदान्तशास्त्र में इस प्रकार बतलाना पड़ता है कि प्रात्मा यद्यपि मूल में अकर्ता है तथापि बंधनों के निमित्त से वह उतने ही के लिए दिखाऊ प्रेरक बन जाता है और जब वह आगन्तुक प्रेरकता उसमें एक बार किसी भी निमित्त से आ जाती है तब वह कर्म के नियमों से भिन्न अर्थात स्वतन्त्र ही रहती है। 'स्वतन्त्र' का अर्थ निनिमित्तक नहीं है, और आत्मा अपनी मूल शुद्धावस्था में कर्ता भी नहीं रहता । परन्तु बार-बार इस लम्बी-चौड़ी कर्मकथा को बतलाते न रहकर इसी को संक्षेप में आत्मा की स्वतन्त्र प्रवृत्ति या प्रेरणा कहने की परिपाटी हो गई है । बन्धन में पड़ने के कारण प्रात्मा के द्वारा इन्द्रियों को मिलने वाली इस स्वतन्त्र प्रेरणा में और बाह्य सृष्टि के पदार्थों के संयोग से इन्द्रियों में उत्पन्न होने वाली प्रेरणा में बहत भिन्नता है। खाना-पीना, चैन करना-ये सब इन्द्रियों की प्रेरणाएँ हैं और आत्मा की प्रेरणा मोक्षानुकूल कर्म करने के लिए हुआ करती है । पहली प्रेरणा केवल बाह्य अर्थात् कर्म सृष्टि की है । परन्तु दूसरी प्रेरणा
आत्मा की अर्थात् ब्रह्म सृष्टि की है । और ये दोनों प्रेरणाएँ प्रायः परस्पर विरोधी हैं, जिससे इनके झगड़े में ही मनुष्य की सब आयु बीत जाती है। इनके झगड़े के समय जब मन में संदेह उत्पन्न होता है तब कर्म सृष्टि की प्रेरणा को न मानकर' यदि मनुष्य शुद्धात्मा की स्वतन्त्र प्रेरणा के अनुसार चलने लगेऔर इसी को सच्चा आत्म-ज्ञान या आत्म निष्ठा कहते हैं तो इसके सब व्यवहार स्वभावतः मोक्षानुकूल ही होंगे । और अन्त में-विशुद्ध धर्मा शुद्ध न बुद्ध न च स बुद्धिमान् ।
विमलात्मा च भवति समेत्य विमलात्मना ।
स्वतंत्रश्च स्वतन्त्रेण स्वतंत्रत्वमवाप्नुते ।२ १-श्रीमद्भागवत पुराण ११.१०.४ २-महाभारत, शांति पर्व ३०८, २७-३०
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