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________________ कर्मविपाक और आत्म-स्वातंत्र्य . . [ २६१ किं करिष्यति ।" (गीता ३,३३) निग्रह से क्या होगा, प्राणिमात्र अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलते हैं । "मिध्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्षयति" तेरा निश्चय व्यर्थ है । जिधर तू न चाहेगा, उधर तेरी प्रकृति तुझे खींच लेगी। (गीता १८, ५६, २, ६०) और मनुजी कहते हैं कि "बलवान इन्द्रियग्रामो 'विद्वांसमपि कर्षति" (मनु २.२१५) विद्वानों को भी इन्द्रियाँ अपने वश में कर लेती हैं । कर्म-विपाक प्रक्रिया का भी निष्कर्ष यही है। क्योंकि जब ऐसा मान लिया जाय कि मनुष्य के मन की सब प्रेरणाएँ पूर्व कर्मों से ही उत्पन्न होती हैं, तब तो यही अनुमान करना पड़ता है कि उसे एक कर्म से दूसरे कर्म में अर्थात् सदैव भव चक्र में ही रहना चाहिए। अधिक क्या कहें ? कर्म से छुटकारा पाने की प्रेरणा और कर्म, दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं । और यदि यह सत्य है तो यह आपत्ति प्रा पड़ती है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए कोई भी मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है। इस विषय का विचार अध्यात्मशास्त्र में इस प्रकार किया गया है कि नाम रूपात्मक सारी दृश्य सृष्टि का आधारभूत जो तत्त्व है वही मनुष्य की जड़ देह में भी प्रात्म रूप से निवास करता है, इससे मनुष्य के कृत्यों का विचार देह और प्रात्मा, दोनों की दृष्टि से करना चाहिए । इनमें से आत्मस्वरूपी ब्रह्म मूल में केवल एक ही होने के कारण कभी भी परतन्त्र नहीं हो सकता । क्योंकि किसी एक वस्तु को दूसरे को अधीनता में होने के लिए एक से अधिक कम-से-कम दो वस्तुओं का होना नितान्त आवश्यक है । यहाँ नाम-रूपात्मक कर्म ही वह दूसरी वस्तु है । परन्तु यह कर्म अनित्य है । और मूल में वह परब्रह्म की ही लीला है, जिससे निर्विवाद सिद्ध होता है कि यद्यपि उसने परब्रह्म के एक अंश को आच्छादित कर लिया है, तथापि वह परब्रह्म को अपना दास कभी भी बना नहीं सकता। इसके अतिरिक्त यह पहले ही बतलाया जा चुका है कि जो आत्मा कर्म सृष्टि के व्यापारों का एकीकरण करके सृष्टिज्ञान उत्पन्न करता है, उसे कर्म सृष्टि से भिन्न अर्थात् ब्रह्मसृष्टि का ही होना चाहिए। इससे सिद्ध होता है कि परब्रह्म और वस्तुतः उसी का अंश जो शारीर आत्मा, दोनों मूलतः स्वतन्त्र अर्थात् कर्मात्मक प्रकृति की सत्ता से मुक्त हैं। इनमें से परमात्मा के विषय में मनुष्य को इससे अधिक ज्ञान नहीं हो सकता कि वह अनन्त, सर्वव्यापी, नित्य शुद्ध और मुक्त है । परन्तु इस परमात्मा ही के अंशरूप जीवात्मा की बात भिन्न है । यद्यपि वह . मूल में शुद्ध, मुक्त स्वभाव, निर्गुण तथा अकर्ता है, तथापि शरीर और बुद्धि आदि इन्द्रियों के बंधन में फंसा होने के कारण वह मनुष्य के मन में जो स्फूर्ति उत्पन्न करता है, उसका प्रत्यक्षानुभव रूपी ज्ञान हमें हो सकता है । भाप का उदाहरण लीजिये । जब वह खुली जगह में रहती है तब उसका कुछ बल नहीं होता, परन्तु जब वह किसी बर्तन में बन्द कर दी जाती है तब उसका दबाव उसी बर्तन पर जोर से होता हुआ दीख पड़ने लगता है । ठीक इसी तरह जब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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