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________________ कर्मविपाक और प्रात्म-स्वातन्त्र्य ] . [ २६३ ... "यह जीवात्मा या शरीर आत्मा-जो मूल में स्वतन्त्र है-ऐसे परमात्मा में मिल जाता है, जो नित्य, शुद्ध, बुद्ध और स्वतन्त्र है।" ऊपर जो कहा गया है कि ज्ञान से मोक्ष मिलता है उसका यही अर्थ है । इसके विपरीत जब जड़ देहेंद्रियों के प्राकृत धर्म की अर्थात् कर्मसृष्टि की प्रेरणा की-प्रबलता हो जाती है तब मनुष्य की अधोगति होती है । शरीर में बन्धे हुए जीवात्मा में, देहेंद्रियों में मोक्षानुकूल कर्म करने की तथा ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान से मोक्ष प्राप्त कर लेने की, जो यह स्वतन्त्र शक्ति है, उसकी ओर ध्यान देकर ही भगवान् ने अर्जुन को आत्म स्वातंत्र्य अर्थात् स्वावलम्बन के तत्त्व का उपदेश किया है कि : उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।' "मनुष्य को चाहिये कि वह अपना उद्धार आप ही करे । निराशा से वह अपनी अवनति आप ही न करे । क्योंकि प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपना बंधु (हितकारी) है, और स्वयं अपना शत्रु (नाशकर्ता) है और इस हेतु से योगवासिष्ठ में (यो. २ सर्ग ४-८) दैव का निराकरण करके पौरुष के महत्त्व का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। जो मनुष्य इस तत्त्व को पहचान कर आचरण किया करता है कि सब प्राणियों में एक ही आत्मा है, उसके इसी आचरण को सदाचरण या मोक्षानुकूल आचरण कहते हैं और बद्ध जीवात्मा का भी यही स्वतन्त्र धर्म है कि ऐसे आचरण की ओर देहेंद्रियों को प्रवृत्त किया करे । इसी धर्म के कारण दुराचारी मनुष्य का अन्तःकरण भी सदाचरण ही का पक्ष लिया करता है, जिससे उसे अपने किए हुए दुष्कर्मों का पश्चात्ताप होता है। प्राधिदैवत पक्ष के पंडित इसे सदसद्विवेक-बुद्धिरूपी देवता की स्वतन्त्र स्फूर्ति कहते हैं । परन्तु तात्त्विक दृष्टि से विचार करने पर विदित होता है कि बुद्धीन्द्रिय जड़ प्रकृति ही का विकार होने के कारण स्वयं अपनी ही प्रेरणा कर्म के नियम-बंधनों से मुक्त नहीं हो सकती, यह प्रेरणा उसे कर्म सृष्टि के बाहर के आत्मा से प्राप्त होती है। इसी प्रकार पश्चिमी पंडितों का "इच्छा स्वातन्त्र्य" शब्द भी वेदान्त की दृष्टि से ठीक नहीं है । क्योंकि इच्छा मन का धर्म है और बुद्धि तथा उसके साथ-साथ मन भी कर्मात्मक जड़ प्रकृति के अस्वयंवैद्य विकार हैं। इसलिए ये दोनों स्वयं ही कर्म के बन्धन से छूट नहीं सकते । अतएव वेदान्तशास्त्र का निश्चय है कि सच्चा स्वातन्त्र्य न तो बुद्धि का है और न मन का-वह केवल आत्मा का है। यह स्वातन्त्र्य न तो कोई आत्मा को देता है और न कोई उससे इसे छीन भी सकता है-स्वतन्त्र परमात्मा का अंश रूप जीवात्मा जब उपाधि के बन्धन में पड़ जाता है, तब वह स्वयं स्वतन्त्र रीति से, ऊपर कहे अनुसार बुद्धि तथा मन में प्रेरणा किया करता है । अन्तःकरण की इस प्रेरणा का अनादर करके यदि कोई बर्ताव करेगा तो तुकाराम महाराज के शब्दों में यही कहा १-गीता ६.५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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