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________________ जैन-बौद्ध दर्शन में कर्मवाद ] [ १६७ दुःख, शोक, ताप, अाक्रन्दन, बध, परिदेवन आदि कर्म असाता वेदनीय कर्म हैं । कृत्य संग्रह में निर्दिष्ट प्रतिसंधि, भवंग आवर्जन, दर्शन, श्रवण-घ्राण, आस्वादन, स्पर्श, संवरिच्छन आदि सभी चित्त-चैतसिक के कार्य हैं । इन्हें जैनधर्म के शब्दों में कर्मयुक्त प्रात्मा के पस्पिन्द कह सकते हैं। बौद्धधर्म में कर्म के भेद अनेक प्रकार से किये गये हैं । भूमिचतुष्क और प्रतिसंधि चतुष्क का संबंध जीव अथवा चित्त के परिणामों पर आधारित अग्रिम गतियों में जन्म लेने से है। कुशल-अकुशल चेतना के आधार पर बौद्धधर्म में जनककर्म, उपष्टम्भक कर्म (मरणान्तकाल में भावों के अनुसार गति प्राप्तिक), उपपीड़क कर्म (कर्म विपाक को गहरा करने वाला) तथा उपघातक कर्म (कर्मफल को समूल नष्ट करने वाला) ये चार भेद किये गये हैं। ये भेद वस्तुतः कर्म की तरतमता पर आधारित हैं। किसी विषय विशेष से इनका संबंध नहीं है। पाकदान पर्याय की दृष्टि से गरुक, आसन्न आदि चतुष्क कर्म समय पर आधारित हैं । विपाक चतुष्क कर्म भी चार हैं-दृष्टधर्मवेदनीय उपपद्यवेदनीय, अपरपर्यायवेदनीय और अहोसिकर्म । इन्हें हम प्रकृतिबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध के साथ तुलना कर सकते हैं। जैनधर्म में वर्णित प्रदेशबंध जैसा विषय बौद्धधर्म में दिखाई नहीं देता। ___ जैन-बौद्धधर्म में अकुशल कर्मों में मोह और तज्जन्य मिथ्यादष्टि का स्थान प्रमुख है । मिथ्यादृष्टि को ही दूसरे शब्दों में 'शीलवत परामर्श' कहा गया है । जैनधर्म इसी को 'मिथ्यात्व' संज्ञा देता है। सबसे बड़ा अंतर यह है कि जैन धर्म आत्मवादी धर्म है जबकि बौद्धधर्म अनात्मवादी धर्म है । बौद्धधर्म प्रात्मवाद को मिथ्यात्व कहता है जबकि जैनधर्म प्रात्मवाद को। इसके बावजूद अन्त में चलकर दोनों एक ही स्थान पर पहुंचते हैं। जैनधर्म और बौद्धधर्म दोनों पूर्णतः कर्मवादी धर्म हैं इसलिए दोनों धर्मों और उनके दार्शनिकों ने कर्म की सयुक्तिक और गंभीर विवेचना की है । दोनों का कर्मसाहित्य भी काफी समृद्ध है । प्रस्तुत लघु निबंध में इतने विस्तृत विषय को समाहित नहीं किया जा सकता है। यह तो एक महाप्रबंध का विषय है । अतः यहाँ इतना ही कहना अभिधेय रहा है कि दोनों धर्मों के परिभाषित शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो हम पायेंगे कि उनके चिंतन का विषय तो एक है पर शैली और भाषा भिन्न है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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