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________________ [ कर्म सिद्धान्त कहा गया है। वह कुशल-अकुशल के समान शुद्ध-अशुद्ध होती है। चेतना कर्म के दो रूप हैं-दर्शन और ज्ञान । चेतना, अनुभूति, उपलब्धि और वेदना ये सभी शब्द समानार्थक हैं । योनिशो मनसिकार को ज्ञानचेतना और अयोनिशो मनसिकार को अज्ञानचेतना कह सकते हैं । सम्यग्दृष्टि को ही ज्ञानचेतना होती है और मिथ्यादृष्टि को कर्म तथा कर्मफल चेतना होती है। जैनधर्म के ज्ञानावरणीय कर्म और दर्शनावरणीय कर्म जैसे कर्म बौद्धधर्म में नहीं मिलते । ज्ञान और दर्शन प्रात्मा के गुण हैं । बौद्धधर्म आत्मा को मानता नहीं । अतः इन गुणों के विषय में वहाँ अधिक स्पष्ट विवेचन नहीं मिलता। शोभन चैतसिक वेदनीय कर्म के अन्तर्गत रखे जा सकते हैं। मोह, पाहीक्य, अनपत्राप्य, औद्धत्य, लोभ, दृष्टि, मान, द्वेष, ईर्ष्या, मात्सर्य, कोकृत्य, स्त्यान, मिद्ध एवं विचिकित्सा ये चौदह अकुशल चैतसिक हैं । इन चैतसिकों की तुलना जैनधर्म के भावकर्म से की जा सकती है। मोहनीय कर्म के अन्तर्गत ये सभी भावकर्म आ जाते हैं। बौद्धधर्म के अकुशल कर्म मोहनीय कर्म के भेद-प्रभेदों में समाहित हो जाते हैं। जीवितेन्द्रिय जैनधर्म का आयुकर्म है जिसे 'सर्वचित्त साधारण' कहा गया है। नामकर्म की प्रकृतियां भी बौद्धधर्म में सरलतापूर्वक मिल सकती हैं। शोभन चैतसिकों में श्रद्धा आदि शोभन साधारण, सम्मा वाचा आदि तीन विरतियाँ तथा करुणा, मुदिता दो अप्रामान्य चैतसिक जैनधर्म के सम्यग्दर्शन के गुणों में देखे जा सकते हैं। अकुशल कर्मों की समाप्ति होने पर ही साधक श्रद्धा, स्मृति, ह्री, अपभाप्य, अलोभ, अद्वेष, तत्रमध्यस्थता आदि गुणों की प्राप्ति करता है। ऐसे ही समय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। यहाँ दर्शन का अर्थ श्रद्धा है और सप्त तत्त्वों पर भली प्रकार ज्ञानपूर्वक श्रद्धा करना ही सम्यग्दर्शन हैं । दोनों धर्मों में श्रद्धा को प्राथमिकता दी गई है। एक में सम्यग्दर्शन है तो दूसरा उसे ही सम्मादिट्ठी कहता है। यहाँ 'सम्यक्' शब्द विशेषण के रूप में जुड़ा हुआ है जो पदार्थों के यथार्थ ज्ञानमूलक श्रद्धा को प्रस्तुत करता है। सम्यग्दर्शन के निःशंकित, निःकांक्षित आदि पाठ अंग शोभन चैतसिकों को और स्पष्ट कर देते हैं । ये वस्तुतः सम्यग्दृष्टि के चित्त की निर्मलता को सूचित करते हुए उसकी विशेषताओं को बताते हैं । ___ अभिधम्मत्थसंगहो के प्रकीर्णक संग्रह में चित्त चैतसिकों का संयुक्त वर्णन किया गया है। चित्त-चैतसिकों के विविध रूप किस-किस प्रकार से परस्पर मिश्रित हो सकते हैं, इसे यहाँ वेदना, हेतु, कृत्य, द्वार, आलंबन तथा वस्तु का आधार लेकर स्पष्ट किया गया है। वेदना संग्रह के सुख, दुःख, सौमनस्य, दौर्मनस्व और उपेक्षा को हम वेदनीय कर्म के भेद-प्रभेदो में नियोजित कर सकते हैं । अनुकंपा, दान, पूजा, प्रतिष्ठा, वैयावृत्ति आदि कर्म सात वेदनीय कर्म हैं और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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