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________________ जैन-बौद्ध दर्शन में कर्मवाद ] (४) पृष्ठ ( कर्म करने के उपरान्त शेष कर्म) । कर्म करने की ये चार क्रमिक स्थितियाँ हैं । इसी तरह कर्म के अन्य प्रकार से भी भेद किये गये हैं ( १ ) विज्ञप्ति कर्म ( काय - वाक् द्वारा चित्त की अभिव्यक्ति) ( २ ) अविज्ञप्ति कर्म (विज्ञप्ति से उत्पन्न कुशल - अकुशल कर्म ) [ १६५ 1 'विसुद्धिमग्ग' में कर्म को प्ररूपी कहा गया है पर 'अभिधर्मकोश' में उसे विज्ञप्ति अर्थात् रूपी व अप्रतिध माना गया है । सौत्रान्तिक दर्शन कर्म को अरूपी मानकर जैन दर्शन के समान उसे सूक्ष्म मानता है । बौद्ध दर्शन में कर्म को मानसिक, वाचिक और कायिक मानकर उसे विज्ञप्ति रूप कहा है । उन्हें 'संस्कार' भी कहा जाता है । वे वासना और अविज्ञप्ति रूप भी हैं । मानसिक संस्कार कर्म 'वासना' कहलाता है और वाचिक तथा कायिक संस्कार कर्म 'अविज्ञप्ति' माना जाता है । ये दोनों विज्ञप्ति और अविज्ञप्ति कर्म भावों के अनुसार शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं । जैनधर्म के द्रव्यकर्म और भावकर्म की तुलना किसी सीमा तक इनसे की जा सकती है । वासना और अविज्ञप्ति कर्म जैनधर्म का द्रव्यकर्म ( कार्मारण शरीर ) और संस्कार तथा विज्ञप्ति कर्म जैनधर्म का भावकर्म माना जा सकता है । विज्ञप्तिवादी बौद्धधर्म को वासना के रूप में स्वीकार करते हैं । प्रज्ञाकर गुप्त के अनुसार सारे कार्य वासनाजन्य होते हैं । शून्यवादी बौद्धदर्शन में वासना का स्थान माया या अविद्या को दिया गया है । जैनधर्म के समान बौद्धधर्म में भी चेतनाकर्म को मुख्यकर्म माना गया है । उसे चित्त सहगत धर्म कहा है । मानसिक धर्म उसकी अपर संज्ञा है । यह चेतना चित्त को आकार विशेष प्रदान करती है और प्रतिसन्धि (जन्म) के _ बनाती है | चेतना के कारण ही शुभाशुभ कर्म होते हैं और तदनुसार ही उसका फल होता है । यह मनसिकार दो प्रकार का है (१) योनिशो मनसिकार ( अनित्य को अनित्य तथा अनात्मा को अनात्म मानना ) (२) योनिशो मनसिकार ( अनित्य को नित्य तथा नित्य को अनित्य मानना । इनमें प्रथम सम्यक्त्व और द्वितीय मिथ्यात्व कर्म है जैनधर्म की परिभाषा में। मानसिक, वाचिक और कायिक कर्म को यहाँ 'योग' की संज्ञा दी गई है । जिससे आठ कर्मों का छेद हो वे कृतिकर्म हैं और जिनसे पुण्यकर्म का संचय हो वे चित्कर्म हैं । बौद्धधर्म के समान जैनधर्म में भी चेतनाकर्म है जिसे भाव विशेष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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