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जैन-बौद्ध दर्शन में कर्मवाद ]
(४) पृष्ठ ( कर्म करने के उपरान्त शेष कर्म) ।
कर्म करने की ये चार क्रमिक स्थितियाँ हैं । इसी तरह कर्म के अन्य प्रकार से भी भेद किये गये हैं
( १ ) विज्ञप्ति कर्म ( काय - वाक् द्वारा चित्त की अभिव्यक्ति)
( २ ) अविज्ञप्ति कर्म (विज्ञप्ति से उत्पन्न कुशल - अकुशल कर्म )
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'विसुद्धिमग्ग' में कर्म को प्ररूपी कहा गया है पर 'अभिधर्मकोश' में उसे विज्ञप्ति अर्थात् रूपी व अप्रतिध माना गया है । सौत्रान्तिक दर्शन कर्म को अरूपी मानकर जैन दर्शन के समान उसे सूक्ष्म मानता है । बौद्ध दर्शन में कर्म को मानसिक, वाचिक और कायिक मानकर उसे विज्ञप्ति रूप कहा है । उन्हें 'संस्कार' भी कहा जाता है । वे वासना और अविज्ञप्ति रूप भी हैं । मानसिक संस्कार कर्म 'वासना' कहलाता है और वाचिक तथा कायिक संस्कार कर्म 'अविज्ञप्ति' माना जाता है । ये दोनों विज्ञप्ति और अविज्ञप्ति कर्म भावों के अनुसार शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं । जैनधर्म के द्रव्यकर्म और भावकर्म की तुलना किसी सीमा तक इनसे की जा सकती है । वासना और अविज्ञप्ति कर्म जैनधर्म का द्रव्यकर्म ( कार्मारण शरीर ) और संस्कार तथा विज्ञप्ति कर्म जैनधर्म का भावकर्म माना जा सकता है । विज्ञप्तिवादी बौद्धधर्म को वासना के रूप में स्वीकार करते हैं । प्रज्ञाकर गुप्त के अनुसार सारे कार्य वासनाजन्य होते हैं । शून्यवादी बौद्धदर्शन में वासना का स्थान माया या अविद्या को दिया गया है ।
जैनधर्म के समान बौद्धधर्म में भी चेतनाकर्म को मुख्यकर्म माना गया है । उसे चित्त सहगत धर्म कहा है । मानसिक धर्म उसकी अपर संज्ञा है । यह चेतना चित्त को आकार विशेष प्रदान करती है और प्रतिसन्धि (जन्म) के
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बनाती है | चेतना के कारण ही शुभाशुभ कर्म होते हैं और तदनुसार ही उसका फल होता है । यह मनसिकार दो प्रकार का है
(१) योनिशो मनसिकार ( अनित्य को अनित्य तथा अनात्मा को अनात्म मानना )
(२) योनिशो मनसिकार ( अनित्य को नित्य तथा नित्य को अनित्य
मानना ।
इनमें प्रथम सम्यक्त्व और द्वितीय मिथ्यात्व कर्म है जैनधर्म की परिभाषा में। मानसिक, वाचिक और कायिक कर्म को यहाँ 'योग' की संज्ञा दी गई है । जिससे आठ कर्मों का छेद हो वे कृतिकर्म हैं और जिनसे पुण्यकर्म का संचय हो वे चित्कर्म हैं । बौद्धधर्म के समान जैनधर्म में भी चेतनाकर्म है जिसे भाव विशेष
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