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जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप
0 डॉ. सागरमल जैन
कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व :
यद्यपि जैन दृष्टि से 'कर्मणा बध्यतेजन्तुः' की उक्ति ठीक है लेकिन जैनाचार दर्शन में सभी कर्म अथवा क्रियाएँ समान रूप से बन्धन कारक नहीं हैं। उसमें दो प्रकार के कर्म माने गये हैं, एक को कर्म कहा गया है दूसरे को अकर्म, समस्त साम्परायिक क्रियाएँ कर्म की श्रेणी में आती हैं और इर्यापथिक क्रियाएँ अकर्म की श्रेणी में आती हैं। यदि नैतिक दर्शन की दृष्टि से विचार करें तो प्रथम प्रकार के कर्म ही नैतिकता के क्षेत्र में आते हैं और दूसरे प्रकार के कर्म नैतिकता के क्षेत्र से परे हैं। उन्हें अतिनैतिक कहा जा सकता है। लेकिन नैतिकता के क्षेत्र में आने वाले सभी कर्म भी एक समान नहीं होते हैं उनमें से कुछ शुभ और कुछ अशुभ होते हैं । जैन परिभाषा में इन्हें क्रमशः पुण्य कर्म और पाप कर्म कहा जाता है । इस प्रकार जैन विचारणा के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं-१. इर्यापथिक कर्म (अकर्म), २. पुण्य कर्म और ३. पाप कर्म । बौद्ध विचारणा में भी तीन प्रकार के कर्म माने गये हैं-१. अव्यक्त या प्रकृष्ण अशुक्ल कर्म, २. कुशल या शुक्ल कर्म और ३. अकुशल या कृष्णकर्म । गीता भी तीन प्रकार के कर्म बताती है-१. अकर्म, २. कर्म (कुशल कर्म) और ३. विकर्म (अकुशल कर्म) जैन विचारणा का इर्यापथिक कर्म बौद्ध दर्शन का अव्यक्त या अकृष्ण-अकुशल अशुक्ल कर्म तथा गीता का अकर्म है । इसी प्रकार जैन विचारणा का पुण्य कर्म बौद्ध दर्शन का कुशल (शुक्ल) कर्म तथा गीता का सकाम सात्विक कर्म या कुशल कर्म और जैन विचारणा का पाप कर्म बौद्ध दर्शन का अकुशल (कृष्ण) कर्म तथा गीता का विकर्म है।
__ पाश्चात्य नैतिक दर्शन की दृष्टि से भी कर्म तीन प्रकार के होते हैं१. अतिनैतिक, २. नैतिक, ३. अनैतिक । जैन विचारणा का इर्यापथिक कर्म अतिनैतिक कर्म है, पुण्य कर्म नैतिक कर्म है, और पाप कर्म अनैतिक कर्म है। गीता का अकर्म अतिनैतिक शुभ कर्म या कर्म नैतिक और विकर्म अनैतिक है। बौद्ध विचारणा में अनैतिक, नैतिक और अतिनैतिक कर्म को क्रमशः अकुशल, कुशल और अव्यक्त कर्म अथवा कृष्ण, शुक्ल और अकृष्ण, अशुक्ल कर्म कहा गया है। इन्हें निम्न तुलनात्मक तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है :
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