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पुण्य-पाप की अवधारणा ]
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बनावे, दुर्गति में ले जावे, जीव को पतनोन्मुख करे, उसे पापानुबंधी पुण्य कहते हैं ।
(३) पुण्यानुबंधी पाप - पूर्व भव में किए पाप रूप अशुभ कर्मों का फल पाते हुए भी जो शुभ प्रवृत्ति से पुण्य बंध करावे, उसे पुण्यानुबन्धी पाप कहते हैं । इस भेद में चण्डकौशिक सर्प का उदाहरण प्रसिद्ध है । पाप का उदय होते हुए भी भगवान् महावीर के निमित्त से उसने शुभ भावों में प्रवृत्ति कर शुभ का बंध कर लिया । पाप स्थिति में रहकर भी पुण्य का अर्जन कर लेना, भविष्य को समुज्ज्वल बना लेना, इस भेद का लक्ष्य है । नंदन मणियार का जीव मेंढ़क भी इसी भेद में आता है जो तिर्यंच भव में श्रावक धर्म की साधना कर देवगति का अधिकारी बना और अंत में मोक्ष प्राप्त करेगा ।
(४) पापानुबंधी पाप - पूर्व भव के पाप से जो यहाँ भी दुःखी रहते हैं और आगे भी दुःख (पाप कर्म ) का संचय करते हैं । कुत्ता, बिल्ली, सिंहादि हिंसक व क्रूर प्राणी इसी भेद में आते हैं । तंदुल मत्स्य इसका उदाहरण है जो थोड़े से जीवन में ही सातवीं नारक का बंध कर लेता है । कसाई आदि भी इसी भेद में समाहित होते हैं ।
उपर्युक्त प्रकार से पुण्य-पाप बंध के चार प्रकार माने गए हैं। इनमें पुण्यानुबंधी पुण्य साधक के लिए सर्वोत्तम एवं उपादेय है । पापानुबंधी पाप एवं पापानुबंधी पुण्य दोनों हेय हैं । पुण्यानुबंधी पाप शुभ भविष्य का निर्माता होने से वह भी साधक के लिए हितकारी है। जब तक समस्त कर्म क्षय नहीं होते सभी जीवों को इन चार भेदों में से किसी न किसी भेद में रहना ही होता है ।
तत्त्व दृष्टि से पुण्य पाप की अवधारणा :
तत्त्व दृष्टि से विचार करें तो पुण्य-पाप दोनों ही पुद्गल की दशाएँ हैं जो अस्थायी, परिवर्तनशील एवं अंत में आत्मा से विलग होने वाली होती हैं । कहा भी है
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" पुण्य-पाप फल पाय, हरख-बिलखो मत भाय । यह पुद्गल पर्याय, उपज, नासत फिर थाय ॥ ""
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अतः पुण्योदय में हर्षित होना व पापोदय में विलाप करना दोनों ही ज्ञानियों की दृष्टि में उचित नहीं है । पुण्य-पाप बंध का मुख्य आधार भाव है । कषायों की मंदता में पुण्य प्रकृतियों का और तीव्र कषायों में पाप प्रकृतियों का बंध होता है । शुभ अध्यवसायों में कषाय मंद रहती है । मंद कषाय में यदि योग प्रवृत्ति भी मंदतम रहे तो जघन्य कोटि का शुभ बंध होता है और तीव्र, तीव्रतर
१ - छहढाला ।
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