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________________ १६० ] [ कर्म सिद्धान्त और तीव्रतम रहे तो रस एवं योग की तीव्रता में पुण्य-बंध भी मध्यम और उत्कृष्ट श्रेणी का होता है। जैसे ज्ञान सहित देव गुरु के प्रति भक्ति भाव की तन्मयता भी तीर्थंकर गोत्र बंधने का एक कारण है। ऐसे समय कषायों की मंदता किन्तु योगों की तीव्रतम प्रवृत्ति होती है जिससे शुभ का उत्कृष्ट बंध हो जाता है। एकेन्द्रिय जीवों के केवल काय-योग ही है और वह भी जघन्य प्रकार का। उनमें शुभाशुभ अध्यवसाय भी मंद होते हैं कारण बिना मन के विशेष तीव्र अध्यवसाय नहीं हो सकते । इस कारण वे न तो इतना पुण्य अर्जन कर सकते हैं कि मरकर देव हो सकें और न इतना पाप अर्जन कर सकते हैं कि मरकर नरक में चले जावें । वे साधारणतया अपनी काया या जाति के योग्य ही शुभाशुभ कर्म बंध करते हैं। यदि अध्यवसायों की शुद्धि हुई तो विकलेन्द्रिय या पंचेन्द्रिय हो जाते हैं। विकलेन्द्रिय भी मन के अभाव में अधिक आगे नहीं बढ़ सकते। पुण्य-पाप में भी भाव प्रधान है। भावों के परिवर्तन से पुण्य क्रिया से पाप और पाप क्रिया से भी पुण्य का बंध संभव है। कभी-कभी शुभ भाव से किया कृत्य भी विवेक के अभाव में अशुभ परिणाम वाला हो सकता है। जैसे देवी देवता की मूर्ति के आगे पूजा-हवन एवं बलिदान में बकरा, पाड़ा आदि प्राणियों का वध देव पूजा की शुभ भावना से किया जाता है । वध करने वालों का उन बलि किए जाने वाले प्राणियों के प्रति कोई द्वष भाव भी नहीं होता। वे अपना धर्म मानते हुए प्रसन्नता से बलि करते हैं। फिर भी मिथ्यात्व, हृदय की कठोरता, निर्दयता एवं विवेक हीनता के चलते उन्हें प्रायः अशुभ कर्म बंधते हैं । उनके तथाकथित शुभ विचारों का फल अत्यल्प होने से उसका कोई महत्त्व नहीं। विवेकपूर्वक शुभभावों से दान देने से पुण्य बंध होता है। भले ही दी हुई वस्तु का दुरुपयोग हो तो भी पाप बंध की संभावना नहीं रहती है । इस सम्बन्ध में एक दृष्टान्त मननीय है। एक सेठ ने एक बाबा जोगी को भोजन की याचना करने पर सेके हुए चने दिए। उस बाबा ने उन चनों को तालाब में डालकर मछलियाँ पकड़ीं और पकाकर खा गया । सामान्यतः कथाकार कहते हैं कि इसका पाप चने देने वाले सेठ को भी लगा । किन्तु कर्म सिद्धान्त इसे नहीं मानता। सेठ ने उस संन्यासी को भूखा जानकर उसके द्वारा याचना करने पर खाने हेतु चने दिए । वह भिखारियों को चने देता था। उसका उद्देश्य भूखों की क्षुधा शान्त कर उन्हें सुखी करना था । उसे यह आशंका ही नयी थी कि एक संन्यासी होकर इतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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