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________________ १५८ ] [ कर्म सिद्धान्त (vi) पति को सताकर सती का ढोंग करने से बाल विधवा होती है । (vii) नियम लेकर भंग करने से लघु वय में स्त्री/पति का वियोग होता है । (viii) किसी की संतान का वियोग करने से लघुवय में माता-पिता मर जाते हैं। (ix) दम्पती में झगड़ा कराने से पति/पत्नी में प्रेम नहीं होता है। पुण्य-पाप के चार रूप : पुण्य-पाप के स्वरूप को भलीभाँति समझने हेतु इनके चार रूपों को भी समझना आवश्यक है, जो इस प्रकार हैं (१) पुण्यानुबंधी पुण्य-वह दशा जिसमें पुण्य का उदय हो और साथ ही प्रवृत्ति भी उत्तम हो जिससे ऐसे पुण्य का अर्जन भी होता रहे कि जो समुज्ज्वल भविष्य का कारण बने ।' इस प्रकार के जीव वर्तमान में सुखी रहते हैं और भविष्य में भी सुखी होते हैं । यह जीव को शुभ से शुभतर की ओर ले जाता है । यह ज्ञान सहित और निदान रहित, धर्म का आचरण करने से अजित होता है। अर्थात् शुद्ध रीति से श्रावक या साधु धर्म के पालन से पुण्यानुबंधी पुण्य का अर्जन होता है । इसका महानतम् फल तीर्थकरत्व है तथा उससे उतरता फल मोक्ष पाने वाले चक्रवर्ती रूप होता है। श्री हरिभद्र सूरि ने लिखा है-जिसके प्रभाव से शाश्वत सुख और मोक्ष रूप समस्त सम्पदा की प्राप्ति हो ऐसे पुण्यानुबंधी पुण्य का मनुष्यों को सभी प्रकार से सेवन करना चाहिए अर्थात् श्रावक और साधु के धर्म का विशेष रूप से पालन करना चाहिए। (२) पापानुबंधी पुण्य-जो पूर्व पुण्य का सुख रूप फल पाते हुए वर्तमान में पाप का अनुबंध कर रहे हैं, वे इस भेद में आते हैं । ऐसे प्राणी पाप करते हुए भी पूर्व पुण्योदय से सुखी व समृद्ध होते हैं जिससे सामान्य प्राणियों को संदेह होता है कि पाप करके भी सुखी रहते हैं तो फिर धर्म करना व्यर्थ है। किन्तु वे नहीं जानते कि वर्तमान में जो सुख मिल रहा है वह पूर्व के पुण्य का फल है । जब वह समाप्त होता है तो ऐसे प्राणियों की दुर्गति निश्चित होती है । हिटलर, मुसोलिनी इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं । आगमों में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का उदाहरण आता है जो चक्रवर्ती होकर भी पाप का संचय कर नरक में गया। इस प्रकार जो पुण्य वर्तमान में सुख रूप फल देकर भी भविष्य को दुष्प्रवृत्ति से अंधकारमय १-मोक्षमार्ग पृ. ५७४ । २-श्री हरिभद्र सूरि कृत अष्टक प्रकरण के २४वें अष्टक में । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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