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________________ १५२ ] [ कर्म सिद्धान्त किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने पर पुण्य को एकान्त हेय नहीं माना जा सकता है । पण्य को 'सुशील' और पाप को 'कुशील' कहा है।' पुण्य आत्मा के लिए संसार-समुद्र तिरने में जहाज के समान उपयोगी है। जैसे समुद्र का तट आने पर जहाज यात्रियों को किनारे उतार देता है, वैसे ही पुण्य भी मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में सहायक हो अंत में जब उसकी उपयोगिता नहीं रहती वह स्वतः आत्मा से अलग हो जाता है। पुण्य आत्मा का अंगरक्षक सेवक है जो मोक्ष प्राप्ति से पूर्व तक उसका स्वामिभक्त सेवक की तरह पूरा सहयोग करता है और अनुकूल साधन जुटाता है। जैसे मिट्टी पात्र पर लगे मैल को साफ कर स्वयं मैल के साथ ही पात्र से दूर हो जाती है, वैसे ही पुण्य पाप-कर्म का निराकरण कर स्वयं दूर हो जाता है । इसी कथन को संस्कृत में कहा है "मलं पात्रो पसंसृष्टम् , अपनीय यथा हि मृत् । स्वयं विलयंतामाति, तथा पापापहं शुभम् ।।"२ पुण्य को साबुन की उपमा भी दी जा सकती है। जैसे साबुन वस्त्र के मैल के साथ स्वतः छूट जाता है वैसे ही पुण्य, आत्मा पर लगे पाप मैल को दूर कर स्वयं भी अलग हो जाता है। जिस तरह एरण्ड बीज या कस्ट्रायल आदि रेचक औषधि मल के रहने तक उदर में रहती है, मल निकलने पर वह भी निकल जाती है, उसी तरह पाप की समाप्ति के बाद पुण्य भी अपना फल देकर निश्चित रूप से बिना आगे कर्म-संतति को बढ़ाए आत्मा से विदा ले लेता है। इसीलिए व्यक्ति को पाप कर्म से बचना आवश्यक है। जब वह अशुभ कर्म से ऊपर उठ जाता है तो उसका शुभ कर्म भी (कषायाभाव में) शुद्ध कर्म बन जाता है । इसी कारण कषाय रहित जो कर्म प्रवृत्ति होती है उसे ईर्या पथिक (शुद्ध) कहा है। पुण्य के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि पुण्य की सद्क्रियाएँ जब अनासक्त भाव (कषाय रहित भाव) से की जाती हैं तो वे शुभ बन्ध का कारण न होकर कर्म क्षय (निर्जरा) का कारण बन जाती हैं। इसके विपरीत संवर निर्जरा के कारण संयम और तप की शुद्ध क्रियाएँ भी जब आसक्त भाव से फलाकांक्षा (निदान करके) से की जाती हैं तो वे कर्म क्षय का या निर्वाण का कारण न होकर कर्म बन्धक और संसार वर्धक बन जाती हैं। उनसे फिर भले ही पौद्गलिक सुख भोग प्राप्त हो जाय किन्तु वे द्रव्य से संवरनिर्जरा की क्रियाएँ होकर भी भाव से कर्म बन्धक हो जाती हैं। इसीलिए कहा है-"जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा।"3 कर्म सिद्धान्त के १-समयसार १४५-४६ । २–अमर भारती १/७८, पृ. ४ । ३-आचारांग १/४/२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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